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Friday, October 19, 2007

कवितायें कुमार विनोद की

( कुमार विनोद कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के गणित विभाग में रीडर हैं. सहकर्मी राजीव रंजन के सौजन्य से उनकी कुछ कवितायें हाथ लगीं. इनसे गुजरना बड़ा सुकूनदाई अनुभव रहा. ये कविताएं उनके सद्यःप्रकाशित संकलन 'कविता ख़त्म नही होती' मे हैं. मन-मस्तिष्क को उद्वेलित ह्रदय को झंकृत करने वाली इन कविताओं को रिजेक्ट माल के पाठकों से बांटने का लोभ संवरण करना हमारे लिए संभव नही हुआ. प्रस्तुत हैं कुछ खास पंक्तियाँ - प्रणव)

बच्चा - एक

बच्चा सच्ची बात लिखेगा
जीवन है सौगात, लिखेगा

जब वो अपनी पर आएगा
मरुथल मे बरसात लिखेगा

उसकी आंखों मे जुगनू है
सारी-सारी रात लिखेगा

नन्हें हाथों को लिखने दो
बदलेंगे हालात, लिखेगा

उसके सहने की सीमा है
मत भूलो, प्रतिघात लिखेगा

बिना प्यार की खुशबू वाली
रोटी को खैरात लिखेगा

जा उसके सीने से लग जा
वो तेरे जज्बात लिखेगा



बच्चा - २

सब आंखों का तारा बच्चा
सूरज चाँद सितारा बच्चा

सूरदास की लकुटि-कमरिया
मीरा का इकतारा बच्चा

कल-कल करता हर पल बहता
दरिया की जलधारा बच्चा

जग से जीत भले न पाए
खुद से कब है हारा बच्चा

जब भी मुश्किल वक्त पड़ेगा
देगा हमे सहारा बच्चा


गूंगे जब सच बोलेंगे

सब सिंहासन डोलेंगे
गूंगे जब सच बोलेंगे

सूरज को भी छू लेंगे
पंछी जब पर तोलेंगे

अब के माँ से मिलते ही
आँचल मे छिप रो लेंगे

कल छुट्टी है, अच्छा है
बच्चे जी भर सो लेंगे

हमने उड़ना सीख लिया
नये आसमां खोलेंगे


आदमी तनहा हुआ

हर तरफ है भीड़ फिर भी आदमी तनहा हुआ
गुमशुदा का एक विज्ञापन-सा हर चेहरा हुआ

सैल घड़ी का दर हकीकत कुछ दिनो से ख़त्म था
और मैं नादां ये समझा वक्त है ठहरा हुआ

चेहरों पे मुस्कान जैसे पानी का हो बुलबुला
पर दिलों मे दर्द जाने कब से है ठहरा हुआ

आसमां की छत पे जाकर चंद तारे तोड़ दूं
दिल ज़माने भर की बातों से मेरा उखडा हुआ

तुम उठो, हम भी उठें और साथ मिल कर सब चलें
रुख हवाओं का मिलेगा एकदम बदला हुआ


अपने हिस्से का सूरज

जीवन है इक दौड़ सभी हम भाग रहे हैं
बिस्तर पे काँटों के हम सब जाग रहे हैं

कागज़ की धरती पर जो बन फूल खिलेंगे
वही शब्द सीनों मे बन कर आग रहे हैं

हर कोई पा ले अपने हिस्से का सूरज
कहाँ सभी के इतने अच्छे भाग रहे हैं

वो जीवन मे सुख पा लेते भी तो कैसे
जिनको ड़सते इच्छाओं के नाग रहे हैं

रंगों से नाता ही मानो टूट गया हो
अपने जावन मे ऐसे भी फाग रहे हैं


डर


सपने मे
बरसात हुयी

भीगने से
बचने की खातिर
दौडा फिरा मैं
मारा-मारा

हुआ पसीने से तर-ब-तर
और
सच मे भीग गया सारा




सतरंगी सपनों की दुनिया

सब कुछ होते हुए भी थोडी बेचैनी है
शायद मुझमे इच्छाओं की एक नदी है

कहीं पे भी जब कोई बच्चा मुस्काया है
फूलों के संग तितली भी तो खूब हंसी है

गर्माहट काफूर हो गयी है रिश्तों से
रगों मे जैसे शायद कोई बर्फ जमी है

सतरंगी सपनो की दुनिया मे तुम आकर
जब भी मुझको छू लेती हो ग़ज़ल हुयी है

(kumar vinod - 09416137196)

3 comments:

अजित वडनेरकर said...

अद्भुत कविताएं हैं भाई....आज का दिन सफल हो गया। उसकी आंखों में सपने है
सारी सारी रात लिखेगा..
बहुत खूब...शुक्रिया विनोदजी की कविताओं से रूबरू कराने के लिए..

Unknown said...

kavitaaon se amooman mai door hee rahata hoon. iseeliye ki kavitaayen mujhe samajh nahee aati. jo kavitaayen samajh aati hain ve behad samany lagatee hain. vinod ji kee panktiyaan is maayane me shaandar hain ki ye na keval samajh me aayyee balki kaheen gahare utartee chalee gayeen. unko saadhuvaad aur apko dhanyavaad

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

कुमार विनोद जी से मिलकर ऐसा लगा. खुद से मिल रहा हूँ. ग़ज़ल लाजवाब कही है.

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