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Friday, April 11, 2008

पत्रकार का दुधारू होना!

सौरभ के. स्वतंत्र


दुधारू पशुओं की फेहरिस्त काफी लम्बी है. चूंकि, मनुष्य भी पशु (सामाजिक) है. सो, उसका भी दुधारू होना लाजिमी है. हाँ, ये बात अलग है कि कोई उन्नत नस्ल का है और कोई बाँझ टाइप. चूंकि मैं एक पत्रकार हूँ. सो, पत्रकारों के दुधारू होने पर चर्चा करना मेरा कर्तव्य बनता है.
पत्रकार शब्द जब भी सुनने को मिलता है तो मुझे वह दुधारू गाय नजर आने लगती है, जो खाती तो है अपने बछड़े को दूध पिलाने के लिए . पर उसे दुह कोई और लेता है. बेचारी वह चाहकर भी कुछ नही कर पाती सिवाय हाथ-पांव पटकने के.
आजकल पत्रकार बंधुओ को भी गजब दुहा जा रहा है. एकदम रेलवे के माफिक. शायद यह सोंचकर कि उन्हें कम दुहेंगे तो अख़बार या चैनल बीमार पड़ सकते हैं. पत्रकारों के दुहने की बात थोड़ा विस्मय पैदा करती है. पर आजकल पत्रकार पैदा करने वाले इतने सारे केन्द्र खुल गए हैं. जहाँ से हजारो-हज़ार की संख्या में किसिम-किसिम के पत्रकार निकल रहे हैं. लिहाजा, स्थिति यह हो गई है कि हर चैनल और अख़बार के पास अनेकानेक विकल्प हो गए हैं. अगर, आप सही तरीके से दूध नही देते हैं तो समझिए आपकी छुट्टी तय है. मतलब आपको इस लाइन में जगह बनानी है तो अपने आप को खूब दुहवाइये . चाहे आप कितने भी बड़े ओहदे पर क्यो न पहुँच जाए आपके ऊपर भी कोई आपको दुहने वाला है.

एक माह पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के ऑडिटोरियम मे बैठा था. जहाँ पत्रकारिता की शिक्षा के मानकीकरण पर चर्चा हो रही थी. जिसमे अच्युतानंदजी, आनंद प्रधानजी, राहुल देवजी, आलोक मेहताजी जैसे वरिष्ठ हस्ताक्षर पत्रकारिता के भविष्य को लेकर अपनी चिंता व्यक्त कर रहे थे. आलोक मेहता जी ने कहा कि इस दौर में संपादक के सत्ता का क्षरण हो रहा है. मैं काफी सोंच मे पड़ गया कि जब पत्रकारिता के शीर्ष पर बैठे लोग ऐसी बात करते हैं तो हमारी क्या बिसात.... हो सकता है संपादक भी अपने आप को दुहा हुआ महसूस करता हो.

हंस पत्रिका के एक मीडिया विशेषांक मे मैंने पढ़ा था कि संपादक को भी अपने ग्रुप चेयरमैन की बातें सुननी पड़ती हैं. उनके सवालो का जवाब देना पड़ता है. जैसे टीआरपी को... खबरों के एंगल को ले कर जवाबदेही ... ख़बर छूट जाने पर भी जवाब देना पड़ता है. वगैरह..वगैरह..

लिहाजा संपादक भी दुहा जाते हैं. और दबाव मे आकर अपने अंडर में काम करने वालो को उन्हें दुहना पड़ता है. अपने बॉस के मार्गदर्शन पर न चाहते हुए भी उन्हें चलना पड़ता है. और जूनियरों को दुहना पड़ता है. वही जूनियर न्यू कमर्स की दुहाई गुस्से मे आकर करते हैं..थोड़ा भी चूं..चा किया कि छुट्टी तय. सो, अपने आपको दुह्वाना ही अपनी नियति मन लेना श्रेयस्कर है.

लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोडे से पूछो जिसके मुंह में लगाम है. यह मैं नही कह रहा हूँ. बल्कि धूमिल ने कहा है. अब जब लगाम की बात आती है तो स्वतंत्र पत्रकार भाई लोग के मुह मे लगाम तो नही है. पर अगर शब्दों के बीच गिरे खून को पहचाने तो जाहिर हो जाएगा कि स्वतंत्र पत्रकार भी दुधारू जमात मे उन्नत नस्ल से सम्बन्ध रखते हैं. दरअसल, उनके अन्दर छपास का रोग होता है. सो, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ में लेख दीजिये , नाम कमाइये , और भूखे सोयिये. यदि कही से सात-आठ माह में चेक आ भी जाए तो उसे लेखन सामग्री खरीदने मे लगा दीजिये , इंटरनेट व कंप्यूटर आदि के चार्ज भर दीजिये. और सूखी अंतडियों से निर्बाध लेख निकालिए. यदि नही निकालते हैं तो आप उन्नत किस्म के दुधारू पत्रकार नही हैं. पारिश्रमिक के लिए सम्पादकजी को फ़ोन घुमाइये तो एहसान फरामोशी का तमगा पाइए. मतलब स्वतंत्र पत्रकार का भी कमोबेश वही हालत है. पर अन्य पत्रकारों से थोड़ा इतर .
मैं जानता हूँ कि पत्रकारों को दुधारू पशु के रूप मे निरुपित करना कितने शूरमाओं को नागवार गुजरेगा..पर क्या करें..कलम है कि रूकती नही.

5 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

मित्र, आपने तो पत्रकारिता की पारिस्थितकी ही उजागर करके रख दी है. वैसे स्वतन्त्र पत्रकारों की (दलालों की बात नहीं कर रहा हूँ) दशा अधिक शोचनीय है. आपके विचारों में एक छटपटाहट है. उम्दा लेख के लिए बधाई! 'कलम की कटारी को दो आब और जियादा...'

vikas pandey said...

सही कहा आपने या तो अपने आपको दुधारू बनाओ या भूखे मरो. हंस के जिस अंक का ज़िक्र अपने किया है वो मैने भी पढ़ा था.
बस सब टी.आर.पी तमाशा है.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बात तो आपकी बिल्कुल सही है. लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कुछ स्वनामधन्य सम्पादक ही हैं. ख़ुद सम्पादक की सत्ता के क्षरण के जिम्मेदार भी सम्पादक ही हैं.

Anonymous said...

क्या बंधू मीडिया लाइन में रहना है कि नही.इ सब क्या बकवास लिखे हैं.चैन से रहिये.अच्छा होगा.

Suman Dubey said...

नमस्कार, आपने तो दशा दिशा आज क्या है दोनो उजागर कर दी है ।

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