Custom Search

Sunday, August 5, 2007

रोइए जार जार क्यूं?

पत्रकारिता की मौत हुई है
या किसी को रोने की आदत हो गई है
हाय, सब कुछ कितना खराब हो गया! हम ये कैसी पत्रकारिता कर रहे हैं! खबरों का हमने तमाशा बना दिया! आखिर टीवी न्यूज चैनल कितनी गंदगी दिखाएंगे। टीवी न्यूज चैनलों ने भूत प्रेतों में जान डाल दी है। मटुकनाथ ना होते, राखी सावंत ना होती तो टीवी चैनलों का क्या होता! गंभीर पत्रकारिता की तो मौत हो गई है! अच्छी पत्रकारिता का दौर कब लौटेगा!

टेलीविजन न्यूज के स्टैंडर्ड को लेकर हाल के वर्षों में ऐसा चिरंतन रूदन आपको लगातर सुनाई देगा। ये रोना पीटना बुद्धिजीवी कहे जाने वाले भी कर रहे हैं और टीवी पत्रकारों का एक हिस्सा भी अपने पीठ पर कोड़े मारकर खुद को लहूलुहान कर रहा। देश के हर चैनल के न्यूजरूम में ये बात सुनाई देगी कि अच्छी पत्रकारिता या कहें पत्रकारिता की मौत हो गई है।
पत्रकारिता में कुछ बदल तो गया है। जैसी पत्रकारिता अब होती है, वैसे पहले नहीं होती थी। लेकिन ये कहना तथ्यों से परे है कि कभी पत्रकारिता का कोई स्वर्ण युग था या कि पहले कोई महान पत्रकारिता हुआ करती थी। यहां तक कि आजादी से पहले के गणेश शंकर विद्यार्थी या पराड़कर युग की जिस पत्रकारिता की वाह वाह के बारे में पत्रकारिता सिखाने वाले इंस्टिट्यूट पढ़ाते हैं, उस दौर का मुख्य स्वर पुरातन, पोंगापंथी, संस्कारी, सनातनी, जातिवादी, चापलूसी और चाटुकारिता ही थी। यकीन ना हो तो नेशनल आर्काइव जाएं और देख लें। श्रीमंतो के आगे सिर झुकाती उस चारण पत्रकारिता की तुलना में तो आज की पत्रकारिता आपको कई गुणा बेहतर लगेगी। आजादी से पहले पत्रकारिता की एक क्रांतिकारी धारा थी, जो समय के हिसाब से सक्षम और प्रभावशाली थी, लेकिन वो उस समय की पत्रकारिता की मुख्यधारा नहीं थी। नेशनल आर्काइव या किसी भी पुराने अखबार के आजादी के बाद के रूमानी दिनों के अखबार ही पलट लें, आपकी ये धारणा मिट जाएगी कि उन दिनों भी कोई महान पत्रकारिता हुई थी।
और अगर बात टीवी न्यूज की हो रही है तो हमारे पिछले मॉडल क्या हैं। क्या आज आपको दूरदर्शनी पत्रकारिता चाहिए। राजीव गांधी और नरसिंह राव के लंबे भाषण लाइव देखकर क्या आप तालियां बजा पाएंगे। आज जब देश के हर हिस्से में असंतोष बढ़ रहा है, तो देश के सूचना और प्रसारण मंत्री देश के चैनल प्रमुखों को बुलाकर हिंसा की तस्वीरें कम दिखाने को कहते हैं। लेकिन टीआरपी के लिए दौड़ रहे चैनल के सामने उनकी बात सुनने का रास्ता ही नहीं है। इसलिए अगर पुलिस कहीं लाठी भांजती है, या गोली चलाती है, और उसके एक्साइटिंग विजुअल हैं तो कोई भी चैनल उसे नहीं दिखाने का जोखिम नहीं लेगा। लेकिन 20 साल पहले क्या ये संभव था। उस समय दूरदर्शन के अधिकारी एक तो सरकारी हिंसा के दृश्य दिखाते ही नहीं और अगर मंत्री के निर्देश के बावजूद कोई ऐसा करता तो उसकी नौकरी चली जाती।
दूरदर्शन के सेंसर के बावजूद अपने समय से आगे की पत्रकारिता अगर किसी ने की थी, तो उनमें मुझे सुरेंद्र प्रताप सिंह का नाम याद आता है। जिन्होंने गणेश के दूध पीने के अफवाह की धज्जियां उड़ाकर ये दिखा दिया था कि अफवाह का खंडन भी पॉप हो सकता है, दर्शक जुटा सकता है, लोगों की स्मृति में वर्षों बाद तक जिंदा रह सकता है। ये सबक उन लोगों के लिए भी है जो पॉप होने के लिए कई तरह के शॉर्ट कट अपना रहे हैं। पुराने एसपी ने नए जमाने के पत्रकार बहुत कुछ सीख सकते हैं। लेकिन एसपी जितने मॉडर्न थे, उस समय की पत्रकारिता उतनी मॉडर्न नहीं थी। इसलिए एसपी अकेले चले और समय के शिलालेख पर कुछ बेहद गहरे निशान छोड़ गए। वरना हमारे पेशे में कौन किसे याद करता है?
बहरहाल हमें एसपी को याद करते हुए नए जमाने की पत्रकारिता का जश्न मनाना चाहिए। और ये सोचना चाहिए कि पुराना इसलिए नहीं बचा क्योंकि वो बचे रहने के काबिल ही नहीं था। आखिर मीनाकुमारी और गीताबाली जैसी आदर्श भारतीय नारियों वाली फिल्में भी तो अब नहीं बनती। असंस्कारी कहे जाने दृश्यों से परहेज अब किसी हीरोइन को नहीं है। एश्वर्या रॉय, प्रियंका चोपड़ा से लेकर बिपाशा बासु, मल्लिका शेहरावत और राखी सावंत नए बिंदास जमाने को अगर सिंबॉलाइज कर रही हैं तो टीवी न्यूज चैनल घूंघट के पर्दे में रहने वाली मूर्तियां कहां से लाए। और फिर साड़ी की जगह जींस और मीनी स्कर्ट और शॉर्ट पेंट तो सिर्फ परदे पर नहीं, हमारे आपके जीवन में भी आ गया है। और इसमें आखिर रोने धोने की क्या बात हो गई। पुरुषों ने भी तो धोती और अंगवस्त्रम पहनना छोड़ दिया है। महिलाएं तो इस बात के लिए नहीं रोतीं।
बहरहाल आज की पत्रकारिता पर रोने वालों को ऐसा करने का पूरा हक है। लेकिन उन्हें कुछ बातें ऐसी भी हैं, जिनकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए।
- मौजूदा समय में टीवी चैनल का कैमरा देश में मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक अधिकारों का सबसे तगड़ा पहरेदार है। मानवाधिकार आयोग तो इसके सामने कुछ भी नहीं है। अंबिकापुर में थानेदार अगर भीड़ पर लाठियां बरसाता है और कैमरा वहां है, तो उसकी नौकरी जा सकती है। आगरा में कोर्ट कंपाउंड में दलित युवक की पिटाई के समय कैमरा मौजूद है तो दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाई होने के आसार अधिक हैं। अगर कैमरा सक्रिय है तो बच्चों के पांव में बेड़ी डालने वाले मास्टर की नौकरी जा सकती है। अगर नंदीग्राम में टीवी कैमरा नहीं होता तो सीपीएम को शायद इतनी शर्म ना आ रही होती। होंडा मोटर्स के मजदूरों की निर्मम पिटाई करने वाला एसपी क्या आज से पंद्रह साल पहले सस्पेंड हो सकता था।
- अभी की टीवी पत्रकारिता न्यूज स्पेस में सुसंस्कृत, कुलीन, भद्रलोक, इलीट, सनातन और ब्राह्मणवादी विचारों के अंत की शुरुआत है। नई पत्रकारिता में सहारनपुर का दलित छात्र राजेश भी नायक होगा क्योंकि वो ऐसे अंदाज में अंग्रेजी बोलता है, जैसे कि अमेरिकी बोलते हैं। नया नायक या खलनायक कौन होगा, ये कुछ लोगों के तय करने से तय नहीं होगा। इसे दर्शकों का लोकतंत्र तय करेगा। नई नायिका राखी सावंत हैं, नया हीरो हीमेश रेशमिया है, नायिका रोहतक की मल्लिका हैं, नायक रांची का महेंद्र सिंह धोनी और सूरत की मस्जिद में खेलते कूदते बड़ा हुआ पठान है या फिर कोलकाता पुलिस का कॉन्स्टेबल प्रशांत तमांग है और फिर हमारे मटुकनाथ हैं। और दर्शक जब जिसे चाहेगा उसकी छुट्टी कर देगा और सबसे प्रभावशाली लोग मुंह ताकते रह जाएंगे।
-ये पत्रकारिता का बहुलवाद है, ये पत्रकारिता का लोकतंत्र है। ये दर्शकों को च्वाइस दे रहा है, ये रिजेक्ट करने की आजादी दे रहा है। आपके पास गंदा देखने की स्वतंत्रता है, लेकिन अच्छा देखने की भी च्वाइस है। आप चुन लीजिए। आप रिजेक्ट कर दीजिए। ये द्वंद तो चिरंतन है। लेकिन पंद्रह साल पहले आप क्या करते। किसी मंत्री का लंबा और उबाऊ भाषण जब दूरदर्शन से आ रहा होता, तो आप आखिर क्या कर लेते। इसलिए खुश रहिए और रोना बंद कीजिए कि आप 2007 में जी रहे हैं और इस समय की पत्रकारिता कर रहे हैं।
-एक आखिरी बात। पुराने दौर में नियुक्तियों में जिस तरह का चेलावाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद था, वो अब चल नहीं सकता। जो संपादक ऐसा करेगा, वो खुद भी बर्बाद होगा और अपने प्रोडक्ट को भी बर्बाद कर देगा। एक ब्राह्मण या कायस्थ संपादक अगर किसी ब्राह्मण या कायस्थ को नौकरी देना चाहे भी तो उसे काबिल ब्राह्मण या कायस्थ ढूंढना होगा। बाजार उसे एक हद से ज्यादा जातिवादी होने की इजाजत नहीं देगा। इसकी प्रक्रिया चल पड़ी है और न्यूजरूम में हमें आने वाले दिनों में भारतीय समाज की विविधता ज्यादा प्रभावशाली ढंग से नजर आएगी।

2 comments:

आर. अनुराधा said...

इस ब्लॉग में आप सब का स्वागत है। इसे अपनी जगह समझें।

Anonymous said...

yaar likhane se pahle khuch sochte ho ya bas bharas nikalnane ke liye likh dete ho.
vijay k pandey

Custom Search