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Saturday, November 24, 2007

जनता अभी जागी नही है!

सृजन शिल्पी

('नंदीग्राम के निहितार्थ' पर मिली यह टिप्पणी छोटी जरूर है लेकिन यह ब्लौगरों की सामान्य प्रतिक्रियाओं (बहुत खूब, लगे रहिये, सटीक) से इस मायने मे अलग है कि यह बहस को आगे बढाती है. इसीलिए इसे कमेंट बॉक्स से निकाल कर यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि सुधी पाठकों को इस पर नज़र न डालने का कोई कारण न मिले.)

जनता ने अभी तक इन दलों को पूरी तरह खारिज नहीं किया है। नए और बेहतर विकल्प उभर सकते हैं, लेकिन उसके लिए शायद अनुकूल समय आया नहीं है।
बगैर रोए तो मां भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती। जनता एक बार विकल्प की जरूरत महसूस तो करे।

5 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

मौजूदा व्यवस्था की ऊपर-नीचे, दाऐं-बाऐं और आगे-पीछे सभी ओर से छान बीन कर ली गई है। कोई जगह ऐसी नहीं जहां सूराख नहीं हो एक को बन्द करने को पैबन्द लगाने का प्रयत्न करते हैं तो दो नए सूराख नए हो जाते हैं। इसें सुधारना मुमकिन नहीं। यह पोशाक तो बदलनी ही पड़ेगी। अब पहनने वाले इसे छोड़ने को तैयार नहीं तो क्या किया जाए। एक दिन जब यह बिलकुल ही तन ढकना बन्द कर देगी तब बदन ढकने को पेड़ों के पत्ते या जानवरों की खालें जो भी मिलेगा उसी से काम चलाना पड़ेगा। धीरे-धीरे कपडे-लत्ते बनाना सीख ही लेंगे। पहले की तरह।

मनमौजी said...

आज काल माँ भारती थोड़ा द्रवित है. उनके दुलारे राजनीत के मारे सन्यासियों और बाबो से कार्पोरेट की ट्रेनिंग ले रहे है. कही पर थोड़ा अवाषर मिले तो उनकी भी दूकान चाल निकले. अरे भाई क्या करे? नेतावो ने तो कुछ करने के लिए छोड़ा ही नही.जो भीकाम करने का वो सोचते भी है तो उसपे पहले से ही नेताजी या बाबाजी ने किसी अपने चेला को लगा रक्खा है.चोरी करने जाओ तो उसमे भी नेता और बाबाजी के चेले कब्जा जमाये बौठे हुए है. डाका डालने जाओ तो उसमे भी बाबाजी या किसी नेता सरदार की मोनोपोली है. यह तक की कमिसन पे इन कामो मे बड़ी बड़ी अगेंसिया भी लगी हूई है , और तो और है नेता या बाबाजी उसमे भी कमीसन
लेते है.अब कहा रोजी रोटी कमाया जाए समझ मे नही आता .अभी कल की ही बात है.
इ. वो कही पे एक चोर पकड़ा गया . दरोगा साहेब ने पूछा माल कहा छुपाया है. तो वो बोला साहेब साहेब , आपस मे सलट लेते है ना क्या आख़िर अपनी समत बुलाते हो. दरोगा भी टाव खा गया तेरी तो ऐसी की तैसी. बोल कौन है तेरा बास . वो बोला थिक है साहेब चलो नेताजी के घर चलते है.दरोगा बोला नेताजी के घर क्यों जाने को बोल रहा है? चाल पहले तू अपने बास को बट्टा. वो बोला नेताजी ही तो मेरा बस है.
एक दूसरा किस्सा सुनता हू. एक बार मैं एक अपने जानने वाले नेता जी का इंटरव्यू लेने पहुचा तो देखा नेताजी बिचारे बहुत दुखी मन से बैठे है. बोले यार फ़िर कभी आना आज मेरा मूड थिक नही है. मैं बोला क्या हूवा? वो बोले आजकल धंधा कमजोर हो गया है/ मैं बोला अरे आप तो इस समय कुर्सी पर बैठे हो टैब कैसे धंधा मंदा है. वो बोले यही तो गम है. पहले ज्यादे मुनाफा मिलता था. आजकल जनता को दिखाना भी पड़ता है की अपराध कम कर रहा हू.

मनमौजी said...

hi re kavita

कविता से कविता के चक्कर मे,

कविता छूट गयी,

लेखनी छूटी, रोजी छूटी,

किस्मत रूठ गयी,

घर बार टूटा, दिल भी टूटा,

खुद का भी ठिकाना गया ,

जब नशा उतरा , उसके इस्क का,

अपना ही आशियाना गया,

हाय् रे कविता , कैसी तू कविता,

अब तो कवि बस यही है रमता,

भारी पड़ गयी कविता की ममता.

मनमौजी said...

tum bin hamane

तुम बिन हमने जबसे जीना सीख लिया,

नफरतो से भी मुहब्बत करना सीख लिया,

गर्म तपती, दोपहरी मे, खुद को

आहो से, ठंडा करना सीख लिया,

अब तो जब याद तुम्हारी आती है,

मैने बिस्तर मे छुप रोना सीख लिया,

कभी सजोए थे कुछ सपने, संग तुम्हारे ,

यादो मे जहाँ बसाना सीख लिया,

कही मिलोगे जब जीवन की पथरीली राहो पे,

हमने अजनबियो को राह दिखाना सीख लिया.

मनमौजी said...

sharahade.....

अबकी जब आजादी का जस्न होगा

सारा भारत नमन कर रहा होगा,

भगत सिंह तुम अब मत कहना

हमे आता नही चुप रहना,

दुस्मनो तुम्हे हम बताएंगे,

तुम्हे शरहद पर समझाएँगे,

अपने शहिदो के कफन की कीमत

तुम्हारी पीड़ियो से चुकता करवाएँगे,

शांति और प्यार हमारा धर्म रहा है,

स्वाभिमान के लिय मीट जाना,

भारत जन का कर्म रहा है,

गौतम ने अहिंसा सिखलाया,

तो अर्जुन ने हमे गांडीव का पाठ पडाया,

और जब भी बारी आई महाभारत की,

तो कृष्ण ने सुंदर्शन दिखलाया,

आज करोंडो कृष्ण - अर्जुन के भारत मे,

जब भी कही भारत बिरोधी कर्म होगा,

चुप ना बैठना ऐ हिन्दुस्तान,

वही पे तुम्हारा कुरुक्षेत्र होगा,

बजा दो पाञ्चजण्या ऐ कृष्ण

अर्जुन- देश तुम्हे पुकार रहा है,

दिखला दो देश प्रेम का जज़्बा

जन जन यह चीत्कार रहा है.


जय हिन्द - जय हिन्द- जय हिन्द

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