मालंच
गत २२ नवम्बर को मेरी टिप्पणी 'नंदीग्राम के निहितार्थ' पोस्ट हुयी. २३ को ही सृजन शिल्पी की प्रतिक्रिया आ गयी 'जनता अभी जागी नही है'. तुरंत जवाब देने का मन हुआ, लेकिन फिर सोचा थोडा रुक जाना ठीक रहेगा. देख लिया जाये इस पर और लोग क्या सोचते हैं.
भाई दिनेश राय द्विवेदी ने अच्छी टिप्पणी भेजी. लेकिन और कोई कमेंट नही आया. इसीलिए मैंने सोचा जो मुझे कहना है, कह ही दूं. सृजन शिल्पी जी ने लिखा है, ' जनता ने अभी तक इन दलों को पूरी तरह खारिज नही किया है.' सौ फीसदी सच है. अगर जनता ने इन दलों को पूरी तरह खारिज कर दिया होता तो इस पर कुछ कहने सुनने की गुंजाइश ही नही होती.
उस स्थिति मे ये दल अस्तित्व मे भी नही होते, और जब ये दल होते ही नही तो इनसे शिकायत कैसे होती? यानी पूरी बात सिरे से गायब हो जाती. तो सृजन शिल्पी जी की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि जनता ने इन दलों को अभी तक पूरी तरह खारिज नही किया है और इसीलिए हम इस पर बात कर रहे हैं, एक-दूसरे को और लोगों को (जो जनता का ही अभिन्न हिस्सा हैं) यह बता रहे हैं कि इन दलों को खारिज करना कितना जरूरी या गैर जरूरी है.
सृजन शिल्पी जी आगे कहते हैं, '' नये और बेहतर विकल्प उभर सकते हैं, लेकिन उसके लिए शायद अनुकूल समय आया नही है. बगैर रोये तो माँ भी बच्चे को दूध नही पिलाती. जनता एक बार विकल्प की जरूरत तो महसूस करे.''
'नये और बेहतर विकल्प' से सृजन शिल्पी जी का क्या मतलब है यह तो पता नही, लेकिन 'उसके लिए अनुकूल समय नही आया है' की घोषणा जरूर चौंकाती है. ये नये विकल्प कैसे हैं जिनके लिए उपयुक्त समय नही आया है?
एक तरफ दुख, विपन्नता, हाहाकार का यह आलम है कि लोगो मे जीने की तमन्ना भी खत्म हो रही है. किसान भी इसी देश की जनता का हिस्सा हैं. परिवार सहित आत्महत्याओं की घटनाएं बढ़ रही हैं. वंचित समुदायों की हालत इतनी बुरी है कि प्राप्त सुविधाओं मे जरा सी कटौती की संभावना किसी भी समुदाय को पागलपन भरी हिंसा की ओर धकेल सकती है. किसी वंचित समुदाय का अपने लिए सुविधाएं मांगना भी ऐसी संभावनाओं की गुंजाइश तैयार कर देता है कि कोई अन्य समुदाय उसे अपने लिए खतरा मानने लग जाये. कम से कम उस समुदाय के 'कुछ लोग.' नतीजा यह होता है कि विभिन्न वंचित या लगभग वंचित समुदाय टकराव की मुद्रा मे एक-दूसरे के सामने खडे नज़र आते हैं.
एक तरफ ऐसी स्थिति है और दूसरी तरफ हम यह मान रहे हैं कि 'शायद बेहतर विकल्प के लिए अनुकूल समय नही आया है'.
तो भाई वह उपयुक्त समय कब आयेगा? क्या आपके पास ऐसा कोई पैमाना है जिसके आधार पर आप यह बता सकें कि विकल्प का सही समय आ गया, या फलानी सदी के ढिकाने वर्ष मे वह अनुकूल समय आएगा?
कृपा कर यह मत कहियेगा कि जिस दिन जनता इन दलों को पूरी तरह खारिज कर देगी वही अनुकूल समय होगा. जनता ऐसा समूह नही जिसका कोई एक मत, एक सोच या एक हित होता हो. वह परस्पर विरोधी मतों, सोचों और हितों का समुच्चय है. इसीलिए किसी एक मुद्दे पर एक जैसा जनमत बनना लम्बी प्रक्रिया का परिणाम होता है.
और यह प्रक्रिया अपने आप नही चलती. बातचीत, बहस, विवाद और कभी-कभी टकराव भी इस प्रक्रिया का हिस्सा होते है. (और इसके बावजूद समूची जनता कभी एक जैसा नही सोचती. हाँ जनता के बडे हिस्से की सोच जरूर एक जैसी हो सकती है. इसे ही जनमत कह दिया जाता है)
जब तक जनता का एक जैसा मत बनने की यह प्रक्रिया चल रही है तब तक हम एक काम जरूर कर सकते हैं. वह है जनता की चिंता छोड़ पहले अपना मत निश्चित कर लें. अगर हमने अपने मत को तथ्यों तर्कों और मूल्यों की कसौटी पर अच्छे से कस लिया तो हम जनता को मत बनाने मे अपना सहयोग दे सकते हैं. वह सहयोग सचमुच अमूल्य होगा.
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2 comments:
प्रणव जी,
आपकी प्रति-टिप्पणी जायज है। दरअसल टिप्पणी में पूरी बात कह पाने की गुंजाइश नहीं है, इसलिए कोशिश करूंगा कि आपके सवालों का जवाब एक पोस्ट के माध्यम से दिया जाए।
जब अन्याय, अनाचार और भ्रष्टाचार में लिप्त सत्ता में बैठे राजनेता बेशर्म होकर यह दावा करते हैं कि वे जो कर रहे हैं उन्हें जनता के बहुमत का समर्थन हासिल है तो न्यायपालिका तक बेबस महसूस करती है। मैंने लोकतंत्र संबंधी पिछली कुछ पोस्टों में इस बात का जिक्र किया है कि कैसे जनता अपनी जिम्मेदारी और अपने अधिकारों को नहीं समझती। चुनाव के समय वह शत-प्रतिशत मतदान करने आज तक नहीं गई। साठ फीसदी औसत मतदान होता है और जीतने वाली मुख्य पार्टी को मुश्किल से एक चौथाई मत मिलते हैं, लेकिन फिर भी जोड़-तोड़ करके सरकार बन जाती है।
इस देश के राष्ट्रपति से अधिक शक्तिशाली तो थाने का दारोगा है जो केवल शक के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार कर सकता है।
इस समय तो कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका, मीडिया और कॉरपोरेट सबके हित और स्वर अलग-अलग दिशाओं में हैं।
यह इसी देश की जनता है जो राहुल गांधी को भारत का भावी प्रधानमंत्री बनता देखेगी देगी और बाद में अपने दुर्भाग्य पर खुद को कोसेगी।
जोड़-तोड़ करके हो या खरीद-फरोख्त करके या नापाक शर्तों के सामने झुककर, गठबंधन की राजनीति जब तक चल रही है देश में, तब तक इस देश को चाहकर भी कोई नहीं सुधार सकता। लेकिन वह परिस्थिति जल्द ही आने वाली है जब चुनाव के बाद कोई गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होगी। मुझे आशंका है कि ऐसा कोई संवैधानिक संकट आएगा अगले पाँच-सात वर्षों के भीतर। मैं पहले भी इसके बारे में लिखता रहा हूं। पर शायद अभी ज्यादातर लोग इन बातों को महत्व नहीं देंगे।
सही फरमाया आपने. पहले तो ख़ुद तय करना होगा कि हम किस ओर हैं. इतना ही नहीं मुक्तिबोध की शैली में यह भी पूछना होगा कि पार्टनर तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है? जनमत बनाने का रास्ता इन्हीं सवालों से निकल सकता है. रहा इन दलों को खारिज करने का सवाल, तो वह जनता शुरू कर चुकी है. टीवी पर नंदीग्राम की एक महिला को मैंने नफ़रत से थूकते देखा था. यह वही महिला थी जिसने पिछले कई सालों से सीपीएम का झंडा थाम रखा था. लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि नफ़रत की यह फसल पश्चिम बंगाल में दक्षिण पंथियों को चरने दी जाए. विकल्प का सवाल यहाँ आकर और भयावह हो जाता है.
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