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लेकिन कुछ लोग अभी भी खामोश हैं। सुनील गंगोपाध्याय चुप हैं। और सत्यजीत राय की फिल्मों में कई बार हीरो बने सौमित्र चटर्जी भी कुछ बोल नहीं रहे हैं। इनकी खामोशी को दुनिया सुन रही है। खामोश वो लोग भी हैं जिन्हें ये भरोसा है कि सीपीएम के साथ होने की वजह से कोई पुरस्कार उन्हें मिलने वाला है। चुप वो भी हैं जो किसी विश्वविद्यालय या कॉलेज या अकादमी की किसी सीट पर नजर गड़ाए बैठे हैं। और चुप वो भी हैं जिन्हें कोई प्रोजेक्ट मिलना है या जिन्हें इस बात का भरोसा है कि सीपीएम के साथ होने से उनके लिए कलाकर्मी कहलाना आसान होगा, कोई रचना किसी पत्रिका में छप जाएगी। किसी रचना की अच्छी समीक्षा हो जाएगी। साहित्य और कला संस्कृति पर कुंडली मारकर बैठे लोगों से कई लोगों को डर लगता है। हंस और कथादेश और पहल और ऐसी ही तमाम जनपक्षीय कही जाने वाली पत्रिकाओं पर नजर रखिए।
लेकिन ऐसे लोगों में ये साहस या नैतिक बल नहीं है कि नंदीग्राम की घटनाओं के समर्थन में लिखें, बोलें, नाटक करें, पेंटिग्स बनाएं। भाजपाई बुद्धिजीवी (संख्या पहले कम थी, अब केंद्र में सरकार बनने के बाद से बढ़ गई है) जिस तरह गुजरात दंगों के बाद खामोश रहकर दंगों का समर्थन कर रहे थे, वही हाल जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा, जन नाट्य मंच, सहमत और ऐसे ही कला-साहित्य संगठनों का है, जो अपनी ऊर्जा सीपीएम-सीपीआई से लेते हैं। नंदीग्राम में अत्याचार के पक्ष में बोल नहीं रहे हैं क्योंकि शर्म आती है, विरोध में बोल नहीं रहे हैं क्योंकि कुछ पाने का लोभ है या कुछ खोने का डर है।
लेकिन खामोश रहना निष्पक्ष होना नहीं है। खामोशी तो बहुत ताकतवर किस्म की राजनीति है। जो खामोश हैं वो राजनीति कर रहे हैं और उनकी राजनीति को दुनिया देख रही है।
-दिलीप मंडल
2 comments:
अच्छा लिखा। खामोशी को लोग सुन रहे हैं।
mrinal sen ne kal phir paalaa badal liyaa .
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