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Tuesday, November 27, 2007

इस पोस्ट के हर शब्द से नफरत टपक रही है, कैसे बचोगे, कहां छिपोगे, कहां मुंह छिपाओगे?

राजधानी में दिनदहाड़े सामूहिक आदिवासी आखेट, कैसा लोकतंत्र?

वंदना टेटे

गुजरात, पश्चिम बंगाल और अब, असम में राज्य प्रायोजित हिंसा का आदिमकालीन बर्बर नृशंस जनसंहार। निहत्थी दमित-शोषित जनता का। प्रमुख निशाने पर आदिवासी समुदाय। अपने ही आदि भू-भाग पर अपने हक, अधिकार और पहचान की गुहार करता हुआ। एक विशालकाय संविधान जिसकी रक्षा की घोषणा करता रहा है। लेकिन व्यवहार में अदृश्य।

24 नवंबर, 2007 भारत का सबसे शर्मनाक दिन। आदिवासी संघर्ष के इतिहास में जिसके खून के छींटे, और नंगी औरतों का चीत्कार सभ्य आर्य हिंदू समाज के इस सदी के सबसे बर्बर और घृणित काले अध्याय के रूप में सदा-सदा के लिए अंकित हो गया है। अपनी अस्मिता और पहचान के लिए असम की राजधानी दिसपुर की सड़कों पर नंगे पांव आए हजारों आदिवासियों के साथ किया गया वह वहशियाना आखेट न केवल भारतीय समाज के लिए बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए एक ऐसा जघन्य कुकृत्य है, जिसके जख्मी दाग सदियों तक मुख्यधारा के समाज को कटघरे में खड़ा रखेंगे, न्याय मांगेंगे और पूछेंगे कि हमारा कसूर क्या था? क्या अपने अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण जुलूस-रैली-प्रदर्शन करना अपराध है? वह भी ऐसा अपराध कि आप जानवरों की तरह सरेआम दिनदहाड़े राजधानी की सड़कों पर हमें मार डालो। हमारी मां-बहनों को नंगा करके जलील करो और उससे भी क्रूर मन को शांति न मिले तो मौत के घाट उतार दो?

लेकिन ये सब हुआ। लगभग तीन घंटे तक असम की सरकार ने हत्यारों को आदवासियों के शिकार की खुली छूट और प्रश्रय दिया। लोगों को आदिवासियों के सामूहिक नरसंहार के लिए उकसाया। दिसपुर में मौजूद आसा (ऑल आदिवासी स्टूडेट्स एसोसिएशन ऑफ असम) के साथियों ने कत्लेआम शुरू होते ही (लगभग दिन के एक बजे) इसकी सूचना पूरे देश के साथ ही झारखंडियों को भी दी। नार्थ ईस्ट के संवाददाता मित्र बताते हुए चीख-चीख कर रो रहे थे। वे कह रहे थे कि हमारी मां-बहनों के शरीर उधेड़े जा रहे हैं। असम विधानसभा के दो किलोमीटर के दायरे में यह सब घट रहा है। पुलिस और अर्धसैनिक बल रैली के कारण बड़ी संख्या में मौजूद हैं। पर रक्षा करने के बजाए वे लोगों को आतातायी बना रहे हैं। औरतों को नंगा करने के लिए भीड़ को ललकार रहे हैं। हम सब बेबस हैं। अपने ही गणतंत्र में लाचार।

असम सरकार और मीडिया कह रही है कि यह कत्लेआम तब शुरू हुआ जब रैली में आए प्रदर्शनकारी आदिवासियों ने तोड़फोड़ और उत्पात मचाया। अगर यह बात सही भी है तो क्या इसकी छूट मिलनी चाहिए कि उन्हें शहर की व्यस्त सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर मारा जाए। औरतों की इज्जत का नंगा खेल राजधानी में खेला जाए। बच्चों तक को नृशंसतापूर्वक मार डाला जाए। यह सब एक ऐसे समाज ने किया जो विश्व में अपनी श्रेष्ठ संस्कृति का ढोल पीटता है। जो वसुधैव कुटुंबकम का श्लोक बांचता है। देश में होनेवाली अधिकांश रैलियों-जुलूसों में इस तरह का हंगामा होता आया है। लेकिन आज तक इस तरह की हिंसा नहीं हुई। झड़पों तक ही अक्सर मामला सिमट कर रह गया। फिर आदिवासियों के साथ यह व्यवहार मुख्यधारा के समाज ने क्यों किया?

इसका जवाब मुख्यधारा के समाज की हिंसक कार्रवाइयों में ही निहित है। दरअसल वे किसी भी कीमत पर आदिवासियों को उनका अधिकार वापस नहीं करना चाहते, जिस पर वो कई साल से कुंडली मारे बैठे हैं। दोहन, लूट और शोषण का खून उनके मुंह लगा हुआ है और अब यह सभ्य समाज आदमखोर हो गया है। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, असम हो या झारखंड, सभी राज्यों में आदिवासियों का कत्लेआम जारी है। नस्लीय श्रेष्ठता स्थापित करने का यह आदिम तरीका है, जिसे गुजरात में नरेंद्र मोदी अपने तरीके से लागू करते हैं, तो पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव अपने तरीके से। अब तरुण गोगोई ने असम में इससे भी आगे बढ़ते हुए राजधानी में ही आदिवासियों को सबक देकर राजधर्म की नई परिभाषा प्रस्तुत की है। झारखंड में राजभाषा के नाम पर चेतावनी, धमकी की भाषा दूसरे समुदाय के लोग छाती ठोक कर कर रहे हैँ। आश्चर्य नहीं कि कल को झारखंड में इससे भी बर्बर व्यवहार आदिवासियो के साथ बाहरी लोग करें, जिनका कि यहां के बाजार, शहर, कस्बों और प्रशासन पर कब्जा है। जिनके पास राजनीति की मजबूत लाठी है और जो हथियारों के बल पर ताकतवर बने हुए हैँ। जिनके पास बाहुबली हैं। अपराधी हैं।

24 नवंबर, 2007 मेरे जैसे तमाम आदिवासियों के लिए, झारखंडियों के लिए इस देश का सबसे काला दिन बना रहेगा। सीने में शूल की तरह पीढ़ियों तक चुभेगा। हम कभी नहीं भूल पाएंगे। इसलिए नहीं कि यह मानवता का सबसे शर्मनाक दिन है। बल्कि इसलिए कि यह झारखंडी आदिवासी अस्मिता के संघर्ष का एक उज्ज्वल दिन है। औरतों के बदन से उघड़ते कपड़े और भीख मांगती बर्बर मौत के गोद में समाती जिंदगियां, खून में नया उबाल लाएंगी। आदिवासी अस्मिता और अधकार के संघर्ष को और मजबूत करने के लिए। आदिवासी इतिहास न तो मुख्यधारा के समाज के इस बर्बर कृत्य को भूलेगा और न ही शहीद हो गए आत्मीय जनों को।

(यह लेख अपने मित्र अश्विनी कुमार पंकज ने भेजा है। अश्विनी जी झारखंड में भाषा आंदोलन से जुडे़ प्रमुख संस्कृतिकर्मी हैं। उनसे आप akpankaj@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

1 comment:

पुनीत ओमर said...

ghatna vakai hraday vidarak hai. asha karta hu ki bajay rajniti ke, kuchh sudhi log aage akar sahi faisla karenge.

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