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Friday, November 30, 2007

अनुकूल समय कब आएगा? कैसे आएगा?

मालंच

गत २२ नवम्बर को मेरी टिप्पणी 'नंदीग्राम के निहितार्थ' पोस्ट हुयी. २३ को ही सृजन शिल्पी की प्रतिक्रिया आ गयी 'जनता अभी जागी नही है'. तुरंत जवाब देने का मन हुआ, लेकिन फिर सोचा थोडा रुक जाना ठीक रहेगा. देख लिया जाये इस पर और लोग क्या सोचते हैं.
भाई दिनेश राय द्विवेदी ने अच्छी टिप्पणी भेजी. लेकिन और कोई कमेंट नही आया. इसीलिए मैंने सोचा जो मुझे कहना है, कह ही दूं. सृजन शिल्पी जी ने लिखा है, ' जनता ने अभी तक इन दलों को पूरी तरह खारिज नही किया है.' सौ फीसदी सच है. अगर जनता ने इन दलों को पूरी तरह खारिज कर दिया होता तो इस पर कुछ कहने सुनने की गुंजाइश ही नही होती.
उस स्थिति मे ये दल अस्तित्व मे भी नही होते, और जब ये दल होते ही नही तो इनसे शिकायत कैसे होती? यानी पूरी बात सिरे से गायब हो जाती. तो सृजन शिल्पी जी की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि जनता ने इन दलों को अभी तक पूरी तरह खारिज नही किया है और इसीलिए हम इस पर बात कर रहे हैं, एक-दूसरे को और लोगों को (जो जनता का ही अभिन्न हिस्सा हैं) यह बता रहे हैं कि इन दलों को खारिज करना कितना जरूरी या गैर जरूरी है.

सृजन शिल्पी जी आगे कहते हैं, '' नये और बेहतर विकल्प उभर सकते हैं, लेकिन उसके लिए शायद अनुकूल समय आया नही है. बगैर रोये तो माँ भी बच्चे को दूध नही पिलाती. जनता एक बार विकल्प की जरूरत तो महसूस करे.''

'नये और बेहतर विकल्प' से सृजन शिल्पी जी का क्या मतलब है यह तो पता नही, लेकिन 'उसके लिए अनुकूल समय नही आया है' की घोषणा जरूर चौंकाती है. ये नये विकल्प कैसे हैं जिनके लिए उपयुक्त समय नही आया है?
एक तरफ दुख, विपन्नता, हाहाकार का यह आलम है कि लोगो मे जीने की तमन्ना भी खत्म हो रही है. किसान भी इसी देश की जनता का हिस्सा हैं. परिवार सहित आत्महत्याओं की घटनाएं बढ़ रही हैं. वंचित समुदायों की हालत इतनी बुरी है कि प्राप्त सुविधाओं मे जरा सी कटौती की संभावना किसी भी समुदाय को पागलपन भरी हिंसा की ओर धकेल सकती है. किसी वंचित समुदाय का अपने लिए सुविधाएं मांगना भी ऐसी संभावनाओं की गुंजाइश तैयार कर देता है कि कोई अन्य समुदाय उसे अपने लिए खतरा मानने लग जाये. कम से कम उस समुदाय के 'कुछ लोग.' नतीजा यह होता है कि विभिन्न वंचित या लगभग वंचित समुदाय टकराव की मुद्रा मे एक-दूसरे के सामने खडे नज़र आते हैं.

एक तरफ ऐसी स्थिति है और दूसरी तरफ हम यह मान रहे हैं कि 'शायद बेहतर विकल्प के लिए अनुकूल समय नही आया है'.
तो भाई वह उपयुक्त समय कब आयेगा? क्या आपके पास ऐसा कोई पैमाना है जिसके आधार पर आप यह बता सकें कि विकल्प का सही समय आ गया, या फलानी सदी के ढिकाने वर्ष मे वह अनुकूल समय आएगा?

कृपा कर यह मत कहियेगा कि जिस दिन जनता इन दलों को पूरी तरह खारिज कर देगी वही अनुकूल समय होगा. जनता ऐसा समूह नही जिसका कोई एक मत, एक सोच या एक हित होता हो. वह परस्पर विरोधी मतों, सोचों और हितों का समुच्चय है. इसीलिए किसी एक मुद्दे पर एक जैसा जनमत बनना लम्बी प्रक्रिया का परिणाम होता है.
और यह प्रक्रिया अपने आप नही चलती. बातचीत, बहस, विवाद और कभी-कभी टकराव भी इस प्रक्रिया का हिस्सा होते है. (और इसके बावजूद समूची जनता कभी एक जैसा नही सोचती. हाँ जनता के बडे हिस्से की सोच जरूर एक जैसी हो सकती है. इसे ही जनमत कह दिया जाता है)

जब तक जनता का एक जैसा मत बनने की यह प्रक्रिया चल रही है तब तक हम एक काम जरूर कर सकते हैं. वह है जनता की चिंता छोड़ पहले अपना मत निश्चित कर लें. अगर हमने अपने मत को तथ्यों तर्कों और मूल्यों की कसौटी पर अच्छे से कस लिया तो हम जनता को मत बनाने मे अपना सहयोग दे सकते हैं. वह सहयोग सचमुच अमूल्य होगा.

Tuesday, November 27, 2007

इस पोस्ट के हर शब्द से नफरत टपक रही है, कैसे बचोगे, कहां छिपोगे, कहां मुंह छिपाओगे?

राजधानी में दिनदहाड़े सामूहिक आदिवासी आखेट, कैसा लोकतंत्र?

वंदना टेटे

गुजरात, पश्चिम बंगाल और अब, असम में राज्य प्रायोजित हिंसा का आदिमकालीन बर्बर नृशंस जनसंहार। निहत्थी दमित-शोषित जनता का। प्रमुख निशाने पर आदिवासी समुदाय। अपने ही आदि भू-भाग पर अपने हक, अधिकार और पहचान की गुहार करता हुआ। एक विशालकाय संविधान जिसकी रक्षा की घोषणा करता रहा है। लेकिन व्यवहार में अदृश्य।

24 नवंबर, 2007 भारत का सबसे शर्मनाक दिन। आदिवासी संघर्ष के इतिहास में जिसके खून के छींटे, और नंगी औरतों का चीत्कार सभ्य आर्य हिंदू समाज के इस सदी के सबसे बर्बर और घृणित काले अध्याय के रूप में सदा-सदा के लिए अंकित हो गया है। अपनी अस्मिता और पहचान के लिए असम की राजधानी दिसपुर की सड़कों पर नंगे पांव आए हजारों आदिवासियों के साथ किया गया वह वहशियाना आखेट न केवल भारतीय समाज के लिए बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए एक ऐसा जघन्य कुकृत्य है, जिसके जख्मी दाग सदियों तक मुख्यधारा के समाज को कटघरे में खड़ा रखेंगे, न्याय मांगेंगे और पूछेंगे कि हमारा कसूर क्या था? क्या अपने अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण जुलूस-रैली-प्रदर्शन करना अपराध है? वह भी ऐसा अपराध कि आप जानवरों की तरह सरेआम दिनदहाड़े राजधानी की सड़कों पर हमें मार डालो। हमारी मां-बहनों को नंगा करके जलील करो और उससे भी क्रूर मन को शांति न मिले तो मौत के घाट उतार दो?

लेकिन ये सब हुआ। लगभग तीन घंटे तक असम की सरकार ने हत्यारों को आदवासियों के शिकार की खुली छूट और प्रश्रय दिया। लोगों को आदिवासियों के सामूहिक नरसंहार के लिए उकसाया। दिसपुर में मौजूद आसा (ऑल आदिवासी स्टूडेट्स एसोसिएशन ऑफ असम) के साथियों ने कत्लेआम शुरू होते ही (लगभग दिन के एक बजे) इसकी सूचना पूरे देश के साथ ही झारखंडियों को भी दी। नार्थ ईस्ट के संवाददाता मित्र बताते हुए चीख-चीख कर रो रहे थे। वे कह रहे थे कि हमारी मां-बहनों के शरीर उधेड़े जा रहे हैं। असम विधानसभा के दो किलोमीटर के दायरे में यह सब घट रहा है। पुलिस और अर्धसैनिक बल रैली के कारण बड़ी संख्या में मौजूद हैं। पर रक्षा करने के बजाए वे लोगों को आतातायी बना रहे हैं। औरतों को नंगा करने के लिए भीड़ को ललकार रहे हैं। हम सब बेबस हैं। अपने ही गणतंत्र में लाचार।

असम सरकार और मीडिया कह रही है कि यह कत्लेआम तब शुरू हुआ जब रैली में आए प्रदर्शनकारी आदिवासियों ने तोड़फोड़ और उत्पात मचाया। अगर यह बात सही भी है तो क्या इसकी छूट मिलनी चाहिए कि उन्हें शहर की व्यस्त सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर मारा जाए। औरतों की इज्जत का नंगा खेल राजधानी में खेला जाए। बच्चों तक को नृशंसतापूर्वक मार डाला जाए। यह सब एक ऐसे समाज ने किया जो विश्व में अपनी श्रेष्ठ संस्कृति का ढोल पीटता है। जो वसुधैव कुटुंबकम का श्लोक बांचता है। देश में होनेवाली अधिकांश रैलियों-जुलूसों में इस तरह का हंगामा होता आया है। लेकिन आज तक इस तरह की हिंसा नहीं हुई। झड़पों तक ही अक्सर मामला सिमट कर रह गया। फिर आदिवासियों के साथ यह व्यवहार मुख्यधारा के समाज ने क्यों किया?

इसका जवाब मुख्यधारा के समाज की हिंसक कार्रवाइयों में ही निहित है। दरअसल वे किसी भी कीमत पर आदिवासियों को उनका अधिकार वापस नहीं करना चाहते, जिस पर वो कई साल से कुंडली मारे बैठे हैं। दोहन, लूट और शोषण का खून उनके मुंह लगा हुआ है और अब यह सभ्य समाज आदमखोर हो गया है। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, असम हो या झारखंड, सभी राज्यों में आदिवासियों का कत्लेआम जारी है। नस्लीय श्रेष्ठता स्थापित करने का यह आदिम तरीका है, जिसे गुजरात में नरेंद्र मोदी अपने तरीके से लागू करते हैं, तो पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव अपने तरीके से। अब तरुण गोगोई ने असम में इससे भी आगे बढ़ते हुए राजधानी में ही आदिवासियों को सबक देकर राजधर्म की नई परिभाषा प्रस्तुत की है। झारखंड में राजभाषा के नाम पर चेतावनी, धमकी की भाषा दूसरे समुदाय के लोग छाती ठोक कर कर रहे हैँ। आश्चर्य नहीं कि कल को झारखंड में इससे भी बर्बर व्यवहार आदिवासियो के साथ बाहरी लोग करें, जिनका कि यहां के बाजार, शहर, कस्बों और प्रशासन पर कब्जा है। जिनके पास राजनीति की मजबूत लाठी है और जो हथियारों के बल पर ताकतवर बने हुए हैँ। जिनके पास बाहुबली हैं। अपराधी हैं।

24 नवंबर, 2007 मेरे जैसे तमाम आदिवासियों के लिए, झारखंडियों के लिए इस देश का सबसे काला दिन बना रहेगा। सीने में शूल की तरह पीढ़ियों तक चुभेगा। हम कभी नहीं भूल पाएंगे। इसलिए नहीं कि यह मानवता का सबसे शर्मनाक दिन है। बल्कि इसलिए कि यह झारखंडी आदिवासी अस्मिता के संघर्ष का एक उज्ज्वल दिन है। औरतों के बदन से उघड़ते कपड़े और भीख मांगती बर्बर मौत के गोद में समाती जिंदगियां, खून में नया उबाल लाएंगी। आदिवासी अस्मिता और अधकार के संघर्ष को और मजबूत करने के लिए। आदिवासी इतिहास न तो मुख्यधारा के समाज के इस बर्बर कृत्य को भूलेगा और न ही शहीद हो गए आत्मीय जनों को।

(यह लेख अपने मित्र अश्विनी कुमार पंकज ने भेजा है। अश्विनी जी झारखंड में भाषा आंदोलन से जुडे़ प्रमुख संस्कृतिकर्मी हैं। उनसे आप akpankaj@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

Monday, November 26, 2007

फै़ज़ से मुलाकात नहीं हो पा रही है। ब्लॉगर्स पार्क के दोस्तो, मदद चाहिए?

फ़ैज़ की नज्में, ज़िया मोहिउद्दीन की आवाज़ में, मिलेगी क्या? एक थोड़ा सा हिस्सा नज़र आया था कलामे फैज़ नाम के ब्लॉग में। उसके अलावा एक ऑडियो टेप हुआ करता था कभी घर पर। शायद अभी भी है कहीं। अनुराधाजी उसे डिजिटलाइज कराना चाहती हैं। लेकिन तब तक के लिए, अगर किसी दोस्त के पास इंटरनेट का कोई लिंक हो, तो कृपया बताएं।
-dilipcmandal@gmail.com

Saturday, November 24, 2007

जनता अभी जागी नही है!

सृजन शिल्पी

('नंदीग्राम के निहितार्थ' पर मिली यह टिप्पणी छोटी जरूर है लेकिन यह ब्लौगरों की सामान्य प्रतिक्रियाओं (बहुत खूब, लगे रहिये, सटीक) से इस मायने मे अलग है कि यह बहस को आगे बढाती है. इसीलिए इसे कमेंट बॉक्स से निकाल कर यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि सुधी पाठकों को इस पर नज़र न डालने का कोई कारण न मिले.)

जनता ने अभी तक इन दलों को पूरी तरह खारिज नहीं किया है। नए और बेहतर विकल्प उभर सकते हैं, लेकिन उसके लिए शायद अनुकूल समय आया नहीं है।
बगैर रोए तो मां भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती। जनता एक बार विकल्प की जरूरत महसूस तो करे।

Friday, November 23, 2007

नंदीग्राम के निहितार्थ

मालंच

प्रभाष जोशी ने जनसत्ता मे अच्छा सवाल उठाया कि आखिर वाम के राज मे यह नौबत क्यों आयी कि नंदीग्राम के किसान-मजदूर जब केमिकल हब के लिए प्रस्तावित ज़मीन अधिग्रहण का विरोध करने निकले तो डेढ़ हजार माकपा कैडर उस इलाके से भागने को मजबूर हो गए? कांग्रेस या भाजपा शासित किसी प्रदेश मे तो ऐसा नही होता कि किसी प्रस्तावित परियोजना से उजड़ने वालों का विरोध सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं को उस इलाके से बेदखल ही कर दे? जवाब माकपा कैडर के उन तौर-तरीकों मे है जो वे पूरे पश्चिम बंगाल मे अपना दबदबा बनाए रखने के लिए अपनाते रहे हैं. किसी भी नाम पर आप लोकतांत्रिक विरोध की गुंजाइश ख़त्म करेंगे तो नतीजा वही होगा हिंसात्मक विरोध मे इजाफा.

बहरहाल, नंदीग्राम मुद्दे पर संसदीय बहस ने आम लोगों को जैसे चौराहे पर ला खडा किया है. लेफ्ट फ्रंट की सरकार मे शामिल अन्य दलों ने माकपा को दोषी बताते हुए अपना हाथ झाड़ लिया है, हालांकि सरकार मे वे आज भी शामिल हैं. शायद सामूहिक जिम्मेदारी का सिद्धांत वाम दलों की सरकार पर लागू नही होता. वाम मोर्चे से बाहर माकपा की सबसे तीखी आलोचना भाजपा के नेता कर रहे हैं. मगर न केवल वाम नेता बल्कि कांग्रेस का भी यही मत है की उन्हें आलोचना करने का हक़ नही क्योंकि उनके गुजरात मे गोधरा के बाद जो कुछ हुआ था वह सारी दुनिया देख चुकी है. बात सही है.

जब कांग्रेस नंदीग्राम और गुजरात हिंसा की बात करती है तो पता चलता है कि उसे इस बारे मे बात करने का हक़ नही क्योकि चौरासी के दंगों मे उसके नेताओं ने जो किया-करवाया था वह किसी से छुपा नही है. यह बात भी सही है.

लेकिन जो सवाल हमारे सामने आता है वह यह कि वाम दलों का असली चेहरा सामने आ जाने, भाजपाइयों की करतूतें उजागर हो जाने और कांग्रेस की कलई खुल जाने के बाद हमारे सामने क्या बचता है? अन्य छोटे-मोटे जो भी दल हैं वे इन्ही मे से किसी न किसी का पल्लू थामे हुए हैं.

इस स्थिति के बावजूद हम इन्ही दलों से उम्मीदें बांधे रहें और प्रबुद्ध मतदाता कहलाते रहें तो बदलाव की संभावना ख़त्म होती है और इससे बाहर विकल्प ढूंढें तो बंदूकें लिए नक्सली खडे मिलते हैं. क्या कोई ऐसी राह भी है जो नक्सलियों की बंदूक और इन दलों के बीच से निकलती हो? अगर नही है तो क्या बनाई जा सकती है?

इन सवालों से उलझना अब टाला नही जा सकता अगर सचमुच राजनीति की सूरत बदलनी है.

Friday, November 16, 2007

विजेंद्र अनिल के भोजपुरी गीत

जनवरी 1945 को बक्सर जिले के बगेन में जन्मे कथाकार ,कवि विजेंद्र अनिल का इसी माह तीन तारीख को देहांत हो गया। 1968 से 70 तक उन्होंने अपने गांव से ही प्रगति पत्रिका भी प्रकाशित की थी। आजीवन भाकपा माले से जुडे रहे विजेंद्र अनिल ने बदलते समय में भी अपने सरोकार नहीं बदले थे। गोरख पांडे के बाद अपनी तरह से मेहनतकश ग्रामीण किसान जनता के दुख-दर्द को उन्होंने अपने गीतों में स्वर दिया। विजेंद्र अनिल को समूचे रिजेक्ट समुदाय की तरफ से श्रद्धांजलि. यहाँ प्रस्तुत है भोजपुरी मे लिखी उनकी दो चर्चित कवितायें

जरि गइल ख्‍वाब भाई जी

रउरा सासन के ना बड़ुए जवाब भाईजी,

रउरा कुरूसी से झरेला गुलाब भाई जी


रउरा भोंभा लेके सगरे आवाज करींला,

हमरा मुंहवा पर डलले बानी जाब भाई जी


हमरा झोपड़ी में मटियों के तेल नइखे,

रउरा कोठिया में बरे मेहताब भाई जी


हमरा सतुआ मोहाल, नइखे कफन के ठेकान,

रउआ चाभीं रोज मुरूगा-कवाब भाई जी


रउरा छंवड़ा त पढ़ेला बेलाइत जाइ के

हमरा छंवड़ा के मिले ना किताब भाई जी


रउरा बुढिया के गालवा प क्रीम लागेला,

हमरा नयकी के जरि गइल ख्‍वाब भाई जी


रउरा कनखी पर थाना अउर जेहल नाचेला,

हमरा मुअला प होला ना हिसाब भाई जी


चाहे दंगा करवाईं, चाहे गोली चलवाईं,

देसभक्‍तवा के मिलल बा खिताब भाई जी

ई ह कइसन लोकशाही, लड़े जनता से सिपाही,

केहू मरे, केहू ढारेला सराब भाई जी


अब ना सहब अत्‍याचार, बनी हमरो सरकार,

नाहीं सहब अब राउर कवनो दाब भाई जी


चाहे हथकड़ी लगाईं, चाहे गोली से उड़ाईं

हम त पढ़ब अब ललकी किताब भाई जी



हमरो सलाम लिहीं जी


संउसे देसवा मजूर, रवा काम लिहीं जी

रउआ नेता हईं, हमरो सलाम लिहीं जी।


रउआ गद्दावाली कुरूसी प बइठल रहीं

जनता भेंड़-बकरी ह, ओकर चाम लिहीं जी।


रउआ पटना भा दिल्ली बिरजले रहीं

केहू मरे, रउआ रामजी के नाम लिहीं जी।


चाहे महंगी बढ़े, चाहे लड़े रेलिया

रउआ होटल में छोकरियन से जाम लिहीं जी।


केहू कछुओ कहे त मंहटिउवले रहीं

रउआ पिछली दुअरिया से दाम लिहीं जी।


ई ह गांधी जी के देस, रउआ होई ना कलेस

केहू कांपता त कांपे, रउआ घाम लिहीं जी।

Wednesday, November 14, 2007

जुलूस में मृणाल सेन और कुछ लोगों की मुर्दा शांति

मृणाल सेन ने वही किया जो उन्हें करना चाहिए थामृगया और पदातिक के मृणाल सेन से आप और किसी चीज की उम्मीद नहीं कर सकतेमृणाल सेन नंदीग्राम में अत्याचार के खिलाफ कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट से आज निकले जुलूस में शामिल हुएवही खादी का कुर्ता, अस्सी साल की काया और मजबूत कदमदोपहर बाद कोलकाता से फोन पर ये खबर मिलीखबर अपने पुराने मित्र, पत्रकार और महाश्वेता से लेकर मृणाल सेन पर किताबें लिखने वाले भाई कृपाशंकर चौबे ने दीकृपा जी नंदीग्राम पर लागातर हिंदुस्तान में रिपोर्टिंग कर रहे हैं अब तक 16 बार नंदीग्राम जाकर स्पॉट रिपोर्टिंग कर चुके हैंउन्होंने बताया कि जुलूस में बुद्धिजीवियों को शामिल होना था, लेकिन जनता जुटती गई और कॉलेज स्ट्रीट से बिपिन बिहारी गांगुली स्ट्रीट तक लोग ही लोग दिख रहे थेजिस जुलूस में 500 लोगों के शामिल होने की बात थी, उसमें 50,000 से ज्यादा की भीड़ दिख रही थीअपने आप जुटी, बिन बुलाई भीड़

लेकिन कुछ लोग अभी भी खामोश हैंसुनील गंगोपाध्याय चुप हैंऔर सत्यजीत राय की फिल्मों में कई बार हीरो बने सौमित्र चटर्जी भी कुछ बोल नहीं रहे हैंइनकी खामोशी को दुनिया सुन रही हैखामोश वो लोग भी हैं जिन्हें ये भरोसा है कि सीपीएम के साथ होने की वजह से कोई पुरस्कार उन्हें मिलने वाला हैचुप वो भी हैं जो किसी विश्वविद्यालय या कॉलेज या अकादमी की किसी सीट पर नजर गड़ाए बैठे हैंऔर चुप वो भी हैं जिन्हें कोई प्रोजेक्ट मिलना है या जिन्हें इस बात का भरोसा है कि सीपीएम के साथ होने से उनके लिए कलाकर्मी कहलाना आसान होगा, कोई रचना किसी पत्रिका में छप जाएगीकिसी रचना की अच्छी समीक्षा हो जाएगीसाहित्य और कला संस्कृति पर कुंडली मारकर बैठे लोगों से कई लोगों को डर लगता हैहंस और कथादेश और पहल और ऐसी ही तमाम जनपक्षीय कही जाने वाली पत्रिकाओं पर नजर रखिए

लेकिन ऐसे लोगों में ये साहस या नैतिक बल नहीं है कि नंदीग्राम की घटनाओं के समर्थन में लिखें, बोलें, नाटक करें, पेंटिग्स बनाएंभाजपाई बुद्धिजीवी (संख्या पहले कम थी, अब केंद्र में सरकार बनने के बाद से बढ़ गई है) जिस तरह गुजरात दंगों के बाद खामोश रहकर दंगों का समर्थन कर रहे थे, वही हाल जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा, जन नाट्य मंच, सहमत और ऐसे ही कला-साहित्य संगठनों का है, जो अपनी ऊर्जा सीपीएम-सीपीआई से लेते हैंनंदीग्राम में अत्याचार के पक्ष में बोल नहीं रहे हैं क्योंकि शर्म आती है, विरोध में बोल नहीं रहे हैं क्योंकि कुछ पाने का लोभ है या कुछ खोने का डर है

लेकिन खामोश रहना निष्पक्ष होना नहीं हैखामोशी तो बहुत ताकतवर किस्म की राजनीति हैजो खामोश हैं वो राजनीति कर रहे हैं और उनकी राजनीति को दुनिया देख रही है

-दिलीप मंडल

मुर्दों के साथ मरा नहीं जाता!

-दिलीप मंडल

ये कौन बोल रहा है? भोपाल में यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से गैस रिसने से हजारों लोग मरे थे। उस समय भोपाल में विश्व कविता सम्मेलन होने वाला था। भोपाल के भारत भवन में। इस हादसे के बाद कविता सम्मेलन को स्थगित करने की बात चली तो भारत भवन के कर्ता-धर्ता और मानवीय संवेदनाओं के कवि अशोक वाजपेयी ने कहा - मुर्दों के साथ मरा नहीं जाता। (ये सब मैंने अपनी स्मृति पर भरोसा करते हुए लिखा है। अगर तथ्य कुछ और हैं तो मुझे करेक्ट करें)

उस घटना के 23 साल बाद कोलकाता के नंदन में कोलकाता फिल्म फेस्टिवल हो रहा है। कोलकाता से बस थोड़ी ही दूर नंदीग्राम हो रहा है। अपर्णा सेन और रितुपर्णों घोष समेत कई फिल्मकारों और लेखकों आदि ने इस फेस्टिवल का बहिष्कार किया है। गिरफ्तारियां दी हैं। लेकिन हमारे समय के संवेदनशील फिल्मकार मृणाल सेन ने फेस्टिव का बहिष्कार करने वालों से कहा है- कोलकाता फिल्म फेस्टिवल साल में एक बार होता है। फिल्म प्रेमी साल भर इसका इंतजार करते हैं। ये किसी भी तरह से राजनीति से जुड़ा हुआ नहीं है।

मृणाल सेन की फिल्मों में मुख्य कथ्य राजनीति ही है। देश में न्यू सिनेमा की शुरुआत ही उनकी फिल्म भुवन शोम से मानी जाती है। मृणाल सेन को दुनिया उस फिल्मकार के रूप में याद रखेगी जिसने मृगया, आकालेर संधाने और पदातिक जैसी फिल्में दीं। न कि उस फिल्मकार के रूप में जिसे २००५ में दादा साहेब फाल्के एक ऐसी सरकार ने दिया, जो लेफ्ट फ्रंट के समर्थन से चल रही है। दादा साहेब फाल्के अवार्ड न मिलने से मृणाल सेन का सिनेकर्म छोटा नहीं था। लेकिन नंदीग्राम पर बुद्धदेव भट्टाचार्य के पक्ष में खड़े होकर मृणाल सेन कितने छोटे हो गए हैं।

Tuesday, November 13, 2007

नंदीग्राम पर अविनाश की कविता


दंड भेद साम दाम। नंदीग्राम नंदीग्राम।


एक गली सात घर। जल रहे धधक कर।
तीस जन हैं किधर। भटक रहे दर-बदर।

चारों ओर त्राहिमाम। नंदीग्राम नंदीग्राम।


क़त्ल की कहानियां। ज़ख़्म की निशानियां।
जहां-तहां अनगिनत। उजड़ गये आशियां।

स्‍याह रात थकी शाम। नंदीग्राम नंदीग्राम।


गांव गली शहर से। गुजरात से विदर्भ से।
इंसाफ़ की पुकार है। वे बढ़ रहे हैं तेज़ तेज़।

हो गया बंगाल जाम। नंदीग्राम नंदीग्राम।


ये कौन सी बहार है। ये माकपा सरकार है।
जो कर रही है अनसुनी। ग़रीब की गुहार है।

क्रूर बुद्धिहीन वाम। नंदीग्राम नंदीग्राम।

आइए मिलकर कहें- उनका नाश हो!

-दिलीप मंडल

ऐसा कहने भर से उनका नाश नहीं होगा। फिर भी कहिए कि वो इतिहास के कूड़ेदान में दफन हो जाएं। ये अपील जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ वालों से भी है। नंदीग्राम में और सिंगुर में और पश्चिम बंगाल के हजारों गावों, कस्बों में सीपीएम अपने शासन को बचाए रखने के लिए जिस तरह के धतकरम कर रही है, उसे रोकने के लिए आपका ये महत्वपूर्ण योगदान होगा। आपको और हम सबको ये कहना चाहिए कि "मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश।" सीपीएम ने जुल्मो-सितम ढाने का जो मॉडल पेश किया है, उसकी मिसाल कम ही है। विकासहीनता की जो राजनीति वाम मोर्चा ने पश्चिम बंगाल में की है, उसके बावजूद तीस साल से उसका शासन बना हुआ है। लोग नाराज हैं, पर उसका नतीजा वोट में नजर नहीं आता।

दरअसल सीपीएम ने राजकाज को एक माफिया तंत्र की तरह फाइनट्यून कर लिया है। शासन और विकास के लिए आने वाले पैसों से लेकर नौकरयों की लूट में पार्टी तंत्र की हिस्सेदारों के जरिए, प्रभावशाली जातियों और समुदाय के लोगों को सत्ता में स्टेकहोल्डर बना लिया गया है। लेकन पश्चिम बंगाल का वो किला दरक रहा है। खासकर मुसलमानों में मोहभंग गहरा है। क्या आप ये देख रहे हैं कि नंदीग्राम में मरने वालों के जो नाम सामने आ रहे हैं, उनमें लगभग सभी मुसलमान और दलित उपनाम वाले हैं। 25 फीसदी मुसलमानों की सरकारी नौकरियों में 2 फीसदी हिस्सेदारी की जो बात सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में सामने आई है, उसकी कोई सफाई सीपीएम के पास नहीं है।

पश्चिम बंगाल की राजनीति करवट ले रही है। लेकिन बाकी राज्यों की तरह यहां का परिवर्तन शांति से निबटने वाला नहीं है। ये बेहद तकलीफदेह प्रक्रिया साबित होने वाली है। नंदीग्राम में आप इसकी मिसाल देख चुके हैं।

नीचे पढ़िए पश्चिम बंगाल सरकार की असलियत बयान करता एक आलेख-

वामपंथी राज में रिजवान के परिवार को न्याय मिलेगा

रिजवान-उर-रहमान की मौत/हत्या के बाद के घटनाक्रम से पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और सीपीएम पोलिट ब्यूरो के सदस्य ज्योति बसु चिंतित हैं। ज्योति बसु सरकार में शामिल नहीं हैं , इसलिए अपनी चिंता इतने साफ शब्दों में जाहिर कर पाते हैं। उनका बयान छपा है कि रिजवान केस में जिन पुलिस अफसरों के नाम आए हैं उनके तबादले का आदेश देर से आया है। इससे सीपीएम पर बुरा असर पड़ सकता है।
रिजवान जैसी दर्जनों हत्याओं को पचा जाने में अब तक सक्षम रही पश्चिम बंगाल के वामपंथी शासन के सबसे वरिष्ठ सदस्य की ये चिंता खुद में गहरे राजनीतिक अर्थ समेटे हुए है।

रिजवान कोलकाता में रहने वाला 30 साल का कंप्यूटर ग्राफिक्स इंजीनियर था, जिसकी लाश 21 सितंबर को रेलवे ट्रैक के किनारे मिली। इस घटना से एक महीने पहले रिजवान ने कोलकाता के एक बड़े उद्योगपति अशोक तोदी की बेची प्रियंका तोदी से शादी की थी। शादी के बाद से ही रिजवान पर इस बात के लिए दबाव डाला जा रहा था कि वो प्रियंका को उसके पिता के घर पहुंचा आए। लेकिन इसके लिए जब प्रियंका और रिजवान राजी नहीं हुए तो पुलिस के डीसीपी रेंक के दो अफसरों ज्ञानवंत सिंह और अजय कुमार ने पुलिस हेडक्वार्टर बुलाकर रिजवान को धमकाया। आखिर रिजवान को इस बात पर राजी होना पड़ा कि प्रियंका एक हफ्ते के लिए अपने पिता के घर जाएगी। जब प्रियंका को रिजवान के पास नहीं लौटने दिया गया तो रिजवान मानवाधिकार संगठन की मदद लेने की कोशिश कर रहा था। उसी दौरान एक दिन उसकी लाश मिली।

रिजवान की हत्या के मामले में पश्चिम बंगाल सरकार और सीपीएम ने शुरुआत में काफी ढिलाई बरती। पुलिस के जिन अफसरों पर रजवान को धमकाने के आरोप थे, उन्हें बचाने की कोशिश की गई। पूरा प्रशासन ये साबित करने में लगा रहा कि रिजवान ने आत्महत्या की है। राज्य सरकार ने मामले की सीआईडी जांच बिठा दी और एक न्यायिक जांच आयोग का भी गठन कर दिया गया। इन आयोगों और जांच को रिजवान के परिवार वालों ने लीपापोती की कोशिश कह कर नकार दिया। आखिरकार कोलकाता हाईकोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार को सीबीआई जांच के लिए तैयार होना पड़ा। कोलकाता के पुलिस कमिश्नर और दो डीसीपी को उनके मौजूदा पदों से हटा दिया गया और आखिरकार मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य खुद रिजवान के परिवारवालों से मिलने पहुंचे, क्योंकि रिजवान की मां उनसे मिलने के लिए नहीं आई। राज्य सरकार ने परिवार वालों की मांग के आगे झुकते हुए न्यायिक जांच भी वापस ले ली है।

सवाल ये उठता है कि इस विवाद से राज्य सरकार इस तरह हिल क्यों गई है। दरअसल ये घटना ऐसे समय में हुई है जब पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में वाममोर्चा के खिलाफ व्यापक स्तर पर मोहभंग शुरू हो गया है। पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां मुसलमानों की आबादी चुनाव नतीजों को प्रभावित करती है। 25 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में मुसलमानों की हालत देश में सबसे बुरी है। ये बात काफी समय से कही जाती थी, लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा गठित सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का प्रमाण जगजाहिर कर दिया है। राज्य सरकार से मिले आंकड़ों के आधार पर सच्चर कमेटी ने बताया है कि पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार की नौकरयों में सिर्फ 2 फीसदी मुसलमान हैं। जबक केरल में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत लगभग बराबर है पर वहां राज्य सरकार की नौकरियों में साढ़े दस फीसदी मुसलमान हैं। पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का पिछड़ापन सिर्फ नौकरियों और न्यायिक सेवा में नहीं बल्कि शिक्षा, बैंकों में जमा रकम, बैंकों से मिलने वाले कर्ज जैसे तमाम क्षेत्रों में है।

साथ ही पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां सबसे कम रिजर्वेशन दिया जाता है। पश्चिम बंगाल में दलित, आदिवासी और ओबीसी को मिलाकर 35 प्रतिशत आरक्षण है। वहां ओबीसी के लिए सिर्फ सात फीसदी आरक्षण है। मौजूदा कानूनों के मुताबिक, मुसलमानों को आरक्षण इसी ओबीसी कोटे के तहत मिलता है।

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद से ही पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बौद्धिक जगत में हलचल मची हुई है। इस हलचल से सीपीएम नावाकिफ नहीं है। कांग्रेस का तो यहां तक दावा है कि 30 साल पहले जब कांग्रेस का शासन था तो सरकारी नौकरियों में इससे दोगुना मुसलमान हुआ करते थे। सेकुलरवाद के नाम पर अब तक मुसलमानों का वोट लेती रही सीपीएम के लिए ये विचित्र स्थिति है। उसके लिए ये समझाना भारी पड़ रहा है कि राज्य सरकार की नौकरियों में मुसलमान गायब क्यों हैं।

अक्टूबर महीने में ही राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने प्रदेश के सचिवालय में मुस्लिम संगठनों की एक बैठक बुलाई। बैठक में मिल्ली काउंसिल, जमीयत उलेमा-ए-बांग्ला, जमीयत उलेमा-ए-हिंद, पश्चिम बंगाल सरकार के दो मुस्लिम मंत्री और एक मुस्लिम सांसद शामिल हुए। बैठक की जो रिपोर्टिंग सीपीएम की पत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी के 21 अक्टूबर के अंक में छपी है उसके मुताबिक मुख्यमंत्री ने कहा कि सच्चर कमेटी ने राज्य में भूमि सुधार की चर्चा नहीं की। उनका ये कहना आश्चर्यजनक है क्योंकि सच्चर कमेटी भूमि सुधारों का अध्ययन नहीं कर रही थी। उसे तो देश में अल्पसंख्यकों की नौकरियों और शिक्षा और बैंकिग में हिस्सेदारी का अध्ययन करना था। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने आगे कहा- "ये तो मानना होगा कि सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में उतने मुसलमान नहीं हैं, जितने होने चाहिए। इसका ध्यान रखा जा रहा है और आने वाले वर्षों में हालात बेहतर होंगे। " अपने भाषण के अंत में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मुसलमानों को शांति और सुऱक्षा का भरोसा दिलाया। दरअसल वाममोर्चा सरकार पिछले तीस साल में मुसलमानों को विकास की कीमत पर सुरक्षा का भरोसा ही दे रही है।

रिजवान के मामले में सुरक्षा का भरोसा भी टूटा है। इस वजह से मुसलमान नाराज न हो जाएं, इसलिए सीपीएम चिंतित है। सीपीएम की मजबूरी बन गई है कि इस केस में वो न्याय के पक्ष में दिखने की कोशिश करे। रिजवान पश्चिम बंगाल में एक प्रतीक बन गया है और प्रतीकों की राजनीति में सीपीएम की महारत है। अगर पूरा मुस्लिम समुदाय ये मांग करता कि राज्य की नौकरियों में हमारा हिस्सा कहां गया तो ये सीपीएम के लिए ज्यादा मुश्किल स्थिति होती। लेकिन रिजवान की मौत से जुड़ी मांगों को पूरा करना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है। आने वाले कुछ दिनों में आपको पश्चिम बंगाल में प्रतीकवाद का ही खेल नजर आएगा।

Saturday, November 3, 2007

विश्व हिन्दी सम्मेलन पर एक टिप्पणी

(न्यूयार्क मे हुए आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन पर छपा कम नही है, लेकिन अधिकांश का फोकस इसी बात पर रहा है कि वहाँ जो गए वे साम्प्रदायिक थे या नही और जो नही गए उन्हें बुलाना जरूरी था या नही. इस विश्व सम्मेलन के मूल्यांकन की कसौटियां क्या होनी चाहिए, किन आसान उपायों से इसे ज्यादा उपयोगी बनाया जा सकता था और ऐसा किये जाने के मार्ग मे क्या बाधाएं थीं और हैं इस पर ढंग से विचार-विमर्श नही हो सका. कम से कम मीडिया मे तो ऐसे विमर्श की झलक नही मिली. इसीलिए जब वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव का विश्लेषण उनके ब्लौग सम्यक भारत पर नज़र आया तो उसे रिजेक्ट माल के पाठकों के साथ बांटना जरूरी लगा. राहुल देव न केवल उस सम्मेलन मे शामिल हुए थे बल्कि सीमित रूप मे ही सही उसकी तैयारियों से भी जुडे थे. इसीलिए उनका विश्लेषण विशेष महत्वपूर्ण हो जाता है. - प्रणव)

राहुल देव

जिस विशाल स्तर पर, जिन बड़े उद्देश्यों के साथ, जिन विराट सरकारी संसाधनों के बल पर सम्मेलन होता है उनको देखते हुए उसे मिलने वाली कवरेज और उससे पैदा होने वाला विमर्श भी व्यापक होना चाहिए। लेकिन ऐसा पिछले सम्मेलनों के बाद भी नहीं हुआ, इस आठवें के बाद भी नहीं। यह इन सम्मेलनों की एक बडी असफलता भी है और इतर असफलताओं पर टिप्पणी भी।

सम्मेलन के लिए कितनी, कैसे और कैसी समितियां, उप-समितियां बनीं, उनमें क्या हुआ, क्या नहीं, क्यों – इनका सविस्तार वर्णन कई ज्यादा अधिकारी और बड़े लोग कर चुके हैं। यह नाचीज़ भी दो में जगह पा गया था। वेबसाइट उप-समिति में अध्यक्ष के और मीडिया उप-समिति में सदस्य के रूप में। और यकीन मानिए मुझे आज तक नहीं मालूम मेरा चयन किसने और क्यों किया। न ही इस बारे में मेरी किसी से बात हुई।

मीडिया उप-समिति में साफ और एकाधिक बार यह सुझाव दिया गया कि कम से कम इस बार हिन्दी मीडिया के अलावा दूसरी भाषाओं के मीडिया को भी बुलाना और ले जाना चाहिए। बाकायदा सूची बनाई गई हिन्दीतर भाषाओं के संपादकों की। वे चलते तो न केवल सभी बड़े भाषायी पाठक वर्गों तक सम्मेलन की खबरें पहुँचती बल्कि सम्मेलन में उनका महत्वपूर्ण बौद्धिक योगदान भी होता। आखिर वैश्वीकरण के प्रभावों से अकेली हिन्दी नहीं सारी भाषाएं जूझ रही हैं। सबमें यह विमर्श चल रहा है। उसका लाभ हिन्दी को क्यों नहीं उठाना चाहिए?
पिछले सम्मेलनों के अनुभव के आधार पर मैंने यह भी स्पष्ट चेतावनी दी थी कि यदि हम चाहते हैं कि अमरीकी मीडिया भी इस सम्मेलन को कवर करे तो इसके लिए अलग से और भारी प्रयास करने होंगे। पोर्ट ऑफ स्पेन और लंदन सम्मेलनों का अनुभव यही था कि उन देशों के मुख्य अखबारों, चैनलों ने विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा के विश्व सम्मेलन को कोई घास नहीं डाली थी। और इसकी सारी जिम्मेदारी सिर्फ उनकी नहीं थी। उन्हें लाने, बुलाने के प्रयास कभी ठीक से नहीं किए गए।
इस बार सम्मेलन न्यूयार्क में था, संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में उसका उद्घाटन होना था, महासचिव बान की मून उसमें योजनानुसार अचानक शामिल होने वाले थे (विदेश मंत्रालय के अधिकारियों और विदेश राज्य मंत्री द्वारा यही संकेत बार बार दिए गए)। आज तक यही कहा जा रहा है सरकारी, छद्म सरकारी हिंदी सेवियों द्वारा कि यह सब बहुत सोच समझ कर, मेहनत और दूरदृष्टि के साथ इसी लिए किया गया था कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है।

अगर ऐसा था तो हमारे सुजान, सर्वज्ञ विदेश मंत्रालय के अधिकारियों और दूतावास के लोगों को पता होना चाहिए था कि न्यूयार्क अमरीकी मीडिया की राजधानी है और वहाँ के बड़े अखबारों और चैनलों में आना न केवल अमरीका और संयुक्त राष्ट्र बल्कि पूरी दुनिया की सरकारों पर बड़ा असर डालता है। उनमें छपना, कवर किया जाना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही कठिन भी, खासतौर पर विकासशील देशों के लोगों और कार्यक्रमों के लिए। इसलिए कुछ ज्यादा ही ठोस कोशिशों की जरूरत थी विश्व हिन्दी सम्मेलन के बारे में छपवाने की।

सुझावों के बावजूद इसके कोई प्रयास हुए इसकी कोई दूर तक खबर नहीं है। जबकि न्यूयार्क में ही साजा (साउथ एशियन जर्नलिस्ट एसोसियेशन) का मुख्यालय है और अमरीकी मीडिया में काम करने वाले दक्षिण एशियाई मूल के लगभग सभी पत्रकार इसके सदस्य हैं। खूब सक्रिय संस्था है। लगभग हर महीने ही किसी न किसी भारतीय मेहमान, लेखक, चिंतक, विषय आदि पर कार्यक्रम करती रहती है। उसके कई सदस्य न्यूयार्क के बड़े अखबारों, चैनलों में अच्छे पदों पर हैं। ठीक से बुलाया जाता तो वे आते। उनमें से शायद ही कोई तीन दिन में एक बार भी दिखा।

सम्मेलन की विषयवस्तु, उसके कंटेंट याने वहाँ जो हुआ, जो कहा, सुना और पढ़ा गया उसकी बात करें तो उत्तर भारत के किसी भी प्रमुख शहर में होने वाले किसी हिन्दी सम्मेलन से वह ज्यादा अलग या बेहतर नहीं था। हिन्दी के काफी मूर्धन्य वहाँ थे। लेकिन जितने थे उससे ज्यादा नहीं थे। बहुत से बुलाए नहीं गए। कुछ बुलाए गए तो आए नहीं। उनके न आने के कारणों और औचित्य अनौचित्य पर टिप्पणियाँ पहले ही हो चुकी हैं। मैं उसे बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानता। सब सुपात्र सब बार नहीं जा सकते। कोई न कोई छूटता ही है। महत्वपूर्ण है जो वहाँ थे उन्होने क्या किया। उनका जाना सार्थक था कि नहीं।
सम्मेलन स्थल में प्रवेश से पहले तो हम सब न्यूयार्क में होते थे। उस होने को महसूस करते थे। इस महामहानगर की छवियाँ, ध्वनियाँ, गति, लोग, जगहें, गन्ध, हवा एक अलग और स्पष्ट अनुभव सहज ही बनाते थे। लेकिन एक बार आप अन्दर गए तो न्यूयार्क तिरोहित हो जाता था। आप कहीं भी हो सकते थे – दिल्ली, भोपाल, जयपुर, लखनऊ, इंदौर..... मंच पर वही परिचित चेहरे, भाषा, वही महाविद्यालयी पर्चे, वही सनातन विषय और वही पुरानी, परिचित बातें, भाषण।

लेकिन सबसे बड़ा शून्य मेरी दृष्टि में था एक भी हिन्दीतर भाषाविद, साहित्यकार, विद्वान की अनुपस्थिति। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने की दिशा में बड़े मील के पत्थर के रूप में प्रचारित किए जा रहे इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र से, यूनेस्को से बहुत अच्छे, वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाया जाना चाहिए था। उनसे हमें बहुत कुछ सीखने, जानने को मिल सकता था। न्यूयार्क और उसके आसपास इतने प्रसिद्ध, विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय हैं, थिंक टैंक हैं, साहित्यिक, बौद्धिक संस्थाएं हैं, दर्जनों विश्वप्रसिद्ध लेखक, चिंतक, भाषाविद, अकादमियाँ हैं। क्या हिन्दी को अपने विकास, वर्तमान, भविष्य़ आदि के बारे में दुनिया की दूसरी भाषाओं से, अंग्रेजी से किसी विचार-विनिमय, किसी विमर्श, जानकारी और अनुभव के किसी आदान-प्रदान की जरूरत नहीं? एक ऐसे शहर में जिसमें संसार की सभी प्रमुख संस्कृतियों, देशों, भाषाओं, विचारधाराओं, विमर्शों और विषय़ों के बीच लगभग निरंतर संवाद और साहचर्य की प्रक्रिया चलती ही रहती है, उस शहर के उस जबर्दस्त रचनात्मक, बौद्धिक ऊर्जा क्षेत्र के बीचोंबीच रहते हुए हमारी हिन्दी का कुंभ लगा लेकिन डुबकी लगायी सबने एक वैश्विक वैचारिक संगम में नहीं वही दिल्ली या भोपाल की बासी हो चली तलैया में।

बहुत चर्चा होती है आजकल हिन्दी में हो रही तकनीकी प्रगति की, खासतौर पर आईटी में। इस नाचीज ने सुझाव दिया था कि हम अमरीका के ह्रदय में सम्मेलन कर रहे हैं। हमें भारत में आ चुकी और आने की इच्छा रखने वाली हर बडी आईटी कंपनी को निमंत्रित करना चाहिए सम्मेलन में शामिल होने और हिन्दी के प्रतिनिधि जगत को यह बताने के लिए कि वे हिन्दी, दूसरी भारतीय भाषाओं और संसार की दूसरी भाषाओं में, उनके लिए क्या कर रहे हैं, क्या सोच रहे हैं। हिन्दी को यह जानने की जरूरत है कि जापानी,.रूसी, फ्रेंच, चीनी, कोरियाई, अरबी, स्पैनिश आदि पर वैश्वीकरण का क्या असर पड रहा है। वे अंग्रेजी के बढते प्रभाव और प्रसार को कैसे देखती हैं, किन रणनीतियों को अपना रही हैं? इन भाषाओं में तकनीकी विकास की दशा और दिशा क्या है? उनकी सरकारें उनके लिए क्या कर रही है? गैर-सरकारी स्तर पर क्या हो रहा है? क्या हिन्दी उसके अनुभव से कुछ सीख सकती है? इस कंपनियों की इन प्रक्रियाओं में क्या भूमिका है?
माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम, सिस्को, ओरैकल, गूगल, याहू, डेल, एओएल, ऐपल – दुनिया की सबसे बडी ये कंपनियां अमरीकी हैं। ये सब भारतीय बाजार की मलाई खाने के लिए भारत में डेरे जमा चुकी हैं। सब दावा करती हैं कि वे भारतीय भाषाओं में काम करना चाहती हैं। कि भारत उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह मौका था उन्हें भारत और भारतीय भाषाओं के प्रति अपनी गंभीरता साबित करने का।
भारत से आईटी मंत्रालय के लोग, सरकारी संस्थान सीडैक के लोग और बालेन्दु दधीच – इन सबने मिल कर सम्मेलन में एक प्रदर्शनी लगाई हिन्दी में सॉफ्टवेयर के नए, पुराने प्रयोगों, सुविधाओं आदि के बारे में। प्रदर्शनी अच्छी थी। छोटी थी। भारत में भी उसी आकार की होती है। लेकिन क्या उसमें कुछ विश्वस्तरीय था? क्या अच्छा नहीं होता कि हिन्दी के उस वैश्विक मंच पर आईटी के इन वैश्विक दिग्गजों को बुला कर उनमें और भारतीय विशेषज्ञों के बीच हिन्दी पर केन्द्रित विमर्श, आदान प्रदान होता, साझा शोध की दिशाएं तलाशी जातीं? उनसे हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लिए कुछ वायदे करा लिए जाते?

सुझाया था कि हमारे आईटी मंत्री, विदेश मंत्री या विदेश सचिव – ये बिल गेट्स और दूसरी अमरीकी आईटी महाकाय विभूतियों को निजी निमंत्रण दें सम्मेलन में आने का। सोचिए इससे अच्छा क्या अवसर होता इन सबको और उनकी कंपनियों के उच्चतम स्तरों को हिन्दी से परिचित कराने का, उसके विकास से उन्हें जोडने का? ये सब जब भारत आते हैं तो प्रचार के लिए ही सही गलियों, गाँवों और झुग्गी-झोपडियों में एनजीओ-परिक्रमा करते ही करते हैं। क्योंकि कितने भी बडे हों बिल गेट्स, उनकी और इन सभी कंपनियों को भारतीय बाजार की, भारतीय प्रतिभा की और भारत सरकार के सहयोग और बडे ठेकों की जरूरत है। वे आते। या अपने बडे अधिकारियों को भेजते। लाभ हिन्दी को ही होता। ठीक से साधा जाता तो करोडों डालर की कीमत का हो सकता था। उनकी संवेदनाओं, सोच और योजनाओं में हिन्दी को शामिल करा पाते तो संभावित लाभ गणनातीत हो सकता था। शोध, सहयोग और भारतीय भाषाओं में तकनीकी विकास की नई दिशाएं खुल सकती थीं।

ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्यों? क्योंकि जो दृश्य-अदृश्य लोग और खेमे सचमुच चीजें तय कर रहे थे, जो हमेशा तय करते हैं, उनमें न तो इस तरह के कामों के लिए जरूरी दृष्टि है, न दिलचस्पी। सुझाव मान भी लिया जाता तो उसे ठीक से अमल में लाना दूभर होता। क्योंकि वैसी मानसिक, व्यवस्थागत और तकनीकी तैयारी नहीं थी।

इस समय सारे संसार के भाषाविदों में सबसे चर्चित मुद्दा अंग्रेजी का वैश्विक विस्तार और अन्य भाषाओं पर उसका प्रभाव है। पश्चिमी विद्वान ही उसे हत्यारी भाषा, विध्वंसक भाषा, अकेली विश्व भाषा जैसे विशेषण दे रहे हैं। अमीर पश्चिमी देशों में अंग्रेजी के बढते प्रभाव से अपनी भाषाओं को बचाने की रणनीतियों पर गंभीर विमर्श हो रहा है। अगले 200-300 सालों में दुनिया की आधी से ज्यादा भाषाओं की मृत्यु और सारी दुनिया पर अंग्रेजी के एकछत्र राज की भविष्यवाणियाँ की जा चुकी हैं। भारत में उसकी सबसे पहले और सबसे बुरी मार हिन्दी पर पडेगी, पड रही है। इस चुनौती की प्रकृति, उसके विभिन्न आयामों, निपटने की रणनीतियों की जरूरत – इन बातों का स्पर्श भी बहुत कम हुआ सम्मेलन में। अपवाद रहे उपन्यासकार मृदुला गर्ग का भाषण और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र का वक्तव्य।

मैंने अपने सत्र में एक प्रश्न रखा था सबके सामने। यह कहते हुए कि यहां जितने लोग बैठे हैं हिन्दी के लिए समर्पित, समर्थ, संपन्न् और विशिष्ट हैं। सबके सब हिन्दी के लिए, उसके कारण ही यहां सारी दुनिया से आए हैं। उस हिन्दी का भविष्य यहां बैठे एक एक व्यक्ति के घर में हर रोज लिखा जा रहा है। फिर प्रश्न रखा सबके सामने – यहाँ बैठे सभी हिन्दी प्रेमियों, हिन्दी सेवियों, हिन्दी जीवियों में से जिसके बच्चे या नाती-पोते हिन्दी के पाठक हों कृपया हाथ उठा दें।
एक भी हाथ नहीं उठा। मेरा भी नहीं।
यह विश्व भाषा हिन्दी के विश्व सम्मेलन पर फिलहाल मेरी अंतिम टिप्पणी है।
(१ नवम्बर २००७ को पोस्ट की गयी राहुल देव की टिप्पणी के कुछ अंश ही हम यहाँ दे पाए. यह पूरी टिप्पणी आप www.samyakbharat.blogspot.com पर देख सकते हैं.)

Friday, November 2, 2007

दुनिया का सबसे खतरनाक बांध, जिसके टूटने से लाखों लोग मरेंगे

-पैट्रिक कॉकबर्न

मोसुल के पास दजला यानी टिगरिस नदी पर बना इराक का सबसे बड़ा बांध टूट सकता है। अमेरिकी इंजीनयरों ने चेतावनी दी है कि अगर ये बांध टूटता है तो बांध से 20 मील दूर बसा मोसुल शहर साठ फुट पानी के नीचे डूब जाएगा। इस शहर में 17 लाख लोग रहते हैं। और इस बांध का पानी आगे बगदाद तक पहुंचेगा और रास्ते के घनी आबादी वाले इलाकों में तबाही मचाता जाएगा।

ये बांध 1984 में बनकर पूरा हुआ इसे पहले सद्दाम बांध के नाम से जाना जाता था। बांध ऐसी चट्टानों का बना है, जो पानी सोंखता है। इस बांध का निर्णाण इराक को बाढ़ से बचाने के लिए किया गया गया है। अमेरिकी फौज और उसकी दया पर पल रही इराकी सरकार ने काफी समय से इस बात को छिपाए रखा कि मोसुल बांध टूट सकता है। लेकिन अब ऐसा लगता है कि इस बात को छिपा पाना मुश्किल हो गया है। अमेरिकी सरकार अगर अब चिंतित है तो इसकी वजह ये है कि इराक में तेल की खुदाई वाला क्षेत्र है, और जिस तेल के लिए अमेरिका ने इतना खून खराबा किया है, उसके दोहन में आने वाली कोई भी बाधा उसे कैसे स्वीकार हो सकती है।


पूरी रिपोर्ट http://www.counterpunch.org/ पर पढ़ें।

Thursday, November 1, 2007

सचमुच अच्छी कविता खत्म नहीं होती

राजीव रंजन

एक दिन ऑफिस में एक फोन आया. उधर से कुमार विनोद नाम के सज्जन बोल रहे थे. उन्होने याद दिलाया कि "मैंने अपना एक कविता संकलन जुलाई महीने में समीक्षार्थ भेजा था." मैंने कहा कि मुझे जानकारी नही है, मैं देख कर आपको सूचित करूँगा. अगले दिन उनका फोन फिर आया, तब तक मैंने किताब देखी नही थी, लेकिन दुबारा फोन आने के बाद मैंने शिष्टाचार के नाते सोचा कि देख ही लेना चाहिए. अगर कवितायें ठीकठाक हुईं तो छाप देंगे समीक्षा. वैसे भी कई बार हम ऐसी किताबों की समीक्षाये छापने को मजबूर होते है जो उस लायक नही होती, मगर उसके रचनाकारों के संबंध "ऊपर" के लोगो से होते हैं.

मैंने यूं ही "कविता खत्म नही होती" (संकलन का यही नाम है) पर एक नज़र डाली और जो एक बार नज़र डाली तो फिर बिना रुके पढ़ता चला गया, साथ ही एक अपराधबोध से भी ग्रस्त होता चला गया. मुझे लगा कई बार इसी तरह कई अच्छी रचनाएं उपेक्षित रह जाती होंगी क्योंकि उनके साथ किसी बडे रचनाकार का नाम नहीं जुडा होता है, वे किसी बडे प्रकाशन से नही छपती, उनके रचनाकारों के संबंध "बडे" या "ऊपर" के लोगों से नहीं होते या फिर वे किसी ऐसे समूह से जुडे रचनाकार की नही होती, जिस समूह के लोग ढिंढोरा पीट कर एक-दूसरे की शान में कसीदे पढ़ते हैं.

खैर, आपलोगों ने इस ब्लोग पर कुमार विनोद की कविताएं पढी ही होंगी. मैंने उन पर कुछ लोगों की प्रतिक्रियाएं भी देखी और मुझे लगा कि मैं भी अपनी भावनाएं आपके साथ साझा करूं.

कुमार विनोद पेशे से गणित के अध्यापक हैं (कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में गणित विभाग में रीडर) और प्रकृति से कवि. अध्यापक के रूप मी वे कितने सफल हैं मैं नहीं कह सकता क्योंकि मैं कभी उनका छात्र नहीं रहा. लेकिन, एक पाठक के नाते मैं यह ज़रूर कह सकता हूँ कि वे एक संवेदनशील कवि हैं. उनकी कवितायें पाठको के मानस पर प्रभाव छोड़ने का माद्दा रखती हैं. सरल-सहज भाषा में पाठकों से संवाद करती हैं. इनमें आतंकित कर देने वाली बौद्धिकता नहीं है, बल्कि बिना किसी लाग-लपेट के ऐसी अभिव्यक्ति है जो सीधे जेहन-ओ-दिल में मुकाम बना लेती है. ये हमारी चेतना और विचार प्रक्रिया को झकझोरती हैं. यही कविताओं और कवि की सफलता है.
इन कविताओं को पढ़ते हुए हम अनुभव के विभिन्न स्तरों से गुज़रते हैं. इनमें क्षोभ है, निराशा है, तो उत्साह भी है, संकल्प भी है, भविष्य के प्रति पूरी तरह सकारात्मक नजरिया भी है. समाज की चिंता है तो पत्नी के प्रति पूर्ण अनुराग भी झलकता है-
मेरे लिए
तुम
खुशी में
गाया जाने वाला गीत
दुख में
की जाने वाली
प्रभू की प्रार्थना.

संग्रह की अन्तिम कविता, जिसका शीर्षक "कविता खत्म नही होती" में वे लिखते हैं-
इसी शेष से
फिर विशेष तक
यात्राओं का
क्रम चलता है
कविता खत्म नहीं होती.

सचमुच इस संग्रह की कवितायें पढ़ने के बाद यह महसूस होता है की अच्छी कविता कभी खत्म नही होती है. वह हमेशा हमारी और हमारी आने वाली पीढियों की चेतना में विद्यमान रहती है.
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