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Tuesday, November 13, 2007

आइए मिलकर कहें- उनका नाश हो!

-दिलीप मंडल

ऐसा कहने भर से उनका नाश नहीं होगा। फिर भी कहिए कि वो इतिहास के कूड़ेदान में दफन हो जाएं। ये अपील जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ वालों से भी है। नंदीग्राम में और सिंगुर में और पश्चिम बंगाल के हजारों गावों, कस्बों में सीपीएम अपने शासन को बचाए रखने के लिए जिस तरह के धतकरम कर रही है, उसे रोकने के लिए आपका ये महत्वपूर्ण योगदान होगा। आपको और हम सबको ये कहना चाहिए कि "मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश।" सीपीएम ने जुल्मो-सितम ढाने का जो मॉडल पेश किया है, उसकी मिसाल कम ही है। विकासहीनता की जो राजनीति वाम मोर्चा ने पश्चिम बंगाल में की है, उसके बावजूद तीस साल से उसका शासन बना हुआ है। लोग नाराज हैं, पर उसका नतीजा वोट में नजर नहीं आता।

दरअसल सीपीएम ने राजकाज को एक माफिया तंत्र की तरह फाइनट्यून कर लिया है। शासन और विकास के लिए आने वाले पैसों से लेकर नौकरयों की लूट में पार्टी तंत्र की हिस्सेदारों के जरिए, प्रभावशाली जातियों और समुदाय के लोगों को सत्ता में स्टेकहोल्डर बना लिया गया है। लेकन पश्चिम बंगाल का वो किला दरक रहा है। खासकर मुसलमानों में मोहभंग गहरा है। क्या आप ये देख रहे हैं कि नंदीग्राम में मरने वालों के जो नाम सामने आ रहे हैं, उनमें लगभग सभी मुसलमान और दलित उपनाम वाले हैं। 25 फीसदी मुसलमानों की सरकारी नौकरियों में 2 फीसदी हिस्सेदारी की जो बात सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में सामने आई है, उसकी कोई सफाई सीपीएम के पास नहीं है।

पश्चिम बंगाल की राजनीति करवट ले रही है। लेकिन बाकी राज्यों की तरह यहां का परिवर्तन शांति से निबटने वाला नहीं है। ये बेहद तकलीफदेह प्रक्रिया साबित होने वाली है। नंदीग्राम में आप इसकी मिसाल देख चुके हैं।

नीचे पढ़िए पश्चिम बंगाल सरकार की असलियत बयान करता एक आलेख-

वामपंथी राज में रिजवान के परिवार को न्याय मिलेगा

रिजवान-उर-रहमान की मौत/हत्या के बाद के घटनाक्रम से पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और सीपीएम पोलिट ब्यूरो के सदस्य ज्योति बसु चिंतित हैं। ज्योति बसु सरकार में शामिल नहीं हैं , इसलिए अपनी चिंता इतने साफ शब्दों में जाहिर कर पाते हैं। उनका बयान छपा है कि रिजवान केस में जिन पुलिस अफसरों के नाम आए हैं उनके तबादले का आदेश देर से आया है। इससे सीपीएम पर बुरा असर पड़ सकता है।
रिजवान जैसी दर्जनों हत्याओं को पचा जाने में अब तक सक्षम रही पश्चिम बंगाल के वामपंथी शासन के सबसे वरिष्ठ सदस्य की ये चिंता खुद में गहरे राजनीतिक अर्थ समेटे हुए है।

रिजवान कोलकाता में रहने वाला 30 साल का कंप्यूटर ग्राफिक्स इंजीनियर था, जिसकी लाश 21 सितंबर को रेलवे ट्रैक के किनारे मिली। इस घटना से एक महीने पहले रिजवान ने कोलकाता के एक बड़े उद्योगपति अशोक तोदी की बेची प्रियंका तोदी से शादी की थी। शादी के बाद से ही रिजवान पर इस बात के लिए दबाव डाला जा रहा था कि वो प्रियंका को उसके पिता के घर पहुंचा आए। लेकिन इसके लिए जब प्रियंका और रिजवान राजी नहीं हुए तो पुलिस के डीसीपी रेंक के दो अफसरों ज्ञानवंत सिंह और अजय कुमार ने पुलिस हेडक्वार्टर बुलाकर रिजवान को धमकाया। आखिर रिजवान को इस बात पर राजी होना पड़ा कि प्रियंका एक हफ्ते के लिए अपने पिता के घर जाएगी। जब प्रियंका को रिजवान के पास नहीं लौटने दिया गया तो रिजवान मानवाधिकार संगठन की मदद लेने की कोशिश कर रहा था। उसी दौरान एक दिन उसकी लाश मिली।

रिजवान की हत्या के मामले में पश्चिम बंगाल सरकार और सीपीएम ने शुरुआत में काफी ढिलाई बरती। पुलिस के जिन अफसरों पर रजवान को धमकाने के आरोप थे, उन्हें बचाने की कोशिश की गई। पूरा प्रशासन ये साबित करने में लगा रहा कि रिजवान ने आत्महत्या की है। राज्य सरकार ने मामले की सीआईडी जांच बिठा दी और एक न्यायिक जांच आयोग का भी गठन कर दिया गया। इन आयोगों और जांच को रिजवान के परिवार वालों ने लीपापोती की कोशिश कह कर नकार दिया। आखिरकार कोलकाता हाईकोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार को सीबीआई जांच के लिए तैयार होना पड़ा। कोलकाता के पुलिस कमिश्नर और दो डीसीपी को उनके मौजूदा पदों से हटा दिया गया और आखिरकार मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य खुद रिजवान के परिवारवालों से मिलने पहुंचे, क्योंकि रिजवान की मां उनसे मिलने के लिए नहीं आई। राज्य सरकार ने परिवार वालों की मांग के आगे झुकते हुए न्यायिक जांच भी वापस ले ली है।

सवाल ये उठता है कि इस विवाद से राज्य सरकार इस तरह हिल क्यों गई है। दरअसल ये घटना ऐसे समय में हुई है जब पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में वाममोर्चा के खिलाफ व्यापक स्तर पर मोहभंग शुरू हो गया है। पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां मुसलमानों की आबादी चुनाव नतीजों को प्रभावित करती है। 25 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में मुसलमानों की हालत देश में सबसे बुरी है। ये बात काफी समय से कही जाती थी, लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा गठित सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का प्रमाण जगजाहिर कर दिया है। राज्य सरकार से मिले आंकड़ों के आधार पर सच्चर कमेटी ने बताया है कि पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार की नौकरयों में सिर्फ 2 फीसदी मुसलमान हैं। जबक केरल में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत लगभग बराबर है पर वहां राज्य सरकार की नौकरियों में साढ़े दस फीसदी मुसलमान हैं। पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का पिछड़ापन सिर्फ नौकरियों और न्यायिक सेवा में नहीं बल्कि शिक्षा, बैंकों में जमा रकम, बैंकों से मिलने वाले कर्ज जैसे तमाम क्षेत्रों में है।

साथ ही पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां सबसे कम रिजर्वेशन दिया जाता है। पश्चिम बंगाल में दलित, आदिवासी और ओबीसी को मिलाकर 35 प्रतिशत आरक्षण है। वहां ओबीसी के लिए सिर्फ सात फीसदी आरक्षण है। मौजूदा कानूनों के मुताबिक, मुसलमानों को आरक्षण इसी ओबीसी कोटे के तहत मिलता है।

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद से ही पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बौद्धिक जगत में हलचल मची हुई है। इस हलचल से सीपीएम नावाकिफ नहीं है। कांग्रेस का तो यहां तक दावा है कि 30 साल पहले जब कांग्रेस का शासन था तो सरकारी नौकरियों में इससे दोगुना मुसलमान हुआ करते थे। सेकुलरवाद के नाम पर अब तक मुसलमानों का वोट लेती रही सीपीएम के लिए ये विचित्र स्थिति है। उसके लिए ये समझाना भारी पड़ रहा है कि राज्य सरकार की नौकरियों में मुसलमान गायब क्यों हैं।

अक्टूबर महीने में ही राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने प्रदेश के सचिवालय में मुस्लिम संगठनों की एक बैठक बुलाई। बैठक में मिल्ली काउंसिल, जमीयत उलेमा-ए-बांग्ला, जमीयत उलेमा-ए-हिंद, पश्चिम बंगाल सरकार के दो मुस्लिम मंत्री और एक मुस्लिम सांसद शामिल हुए। बैठक की जो रिपोर्टिंग सीपीएम की पत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी के 21 अक्टूबर के अंक में छपी है उसके मुताबिक मुख्यमंत्री ने कहा कि सच्चर कमेटी ने राज्य में भूमि सुधार की चर्चा नहीं की। उनका ये कहना आश्चर्यजनक है क्योंकि सच्चर कमेटी भूमि सुधारों का अध्ययन नहीं कर रही थी। उसे तो देश में अल्पसंख्यकों की नौकरियों और शिक्षा और बैंकिग में हिस्सेदारी का अध्ययन करना था। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने आगे कहा- "ये तो मानना होगा कि सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में उतने मुसलमान नहीं हैं, जितने होने चाहिए। इसका ध्यान रखा जा रहा है और आने वाले वर्षों में हालात बेहतर होंगे। " अपने भाषण के अंत में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मुसलमानों को शांति और सुऱक्षा का भरोसा दिलाया। दरअसल वाममोर्चा सरकार पिछले तीस साल में मुसलमानों को विकास की कीमत पर सुरक्षा का भरोसा ही दे रही है।

रिजवान के मामले में सुरक्षा का भरोसा भी टूटा है। इस वजह से मुसलमान नाराज न हो जाएं, इसलिए सीपीएम चिंतित है। सीपीएम की मजबूरी बन गई है कि इस केस में वो न्याय के पक्ष में दिखने की कोशिश करे। रिजवान पश्चिम बंगाल में एक प्रतीक बन गया है और प्रतीकों की राजनीति में सीपीएम की महारत है। अगर पूरा मुस्लिम समुदाय ये मांग करता कि राज्य की नौकरियों में हमारा हिस्सा कहां गया तो ये सीपीएम के लिए ज्यादा मुश्किल स्थिति होती। लेकिन रिजवान की मौत से जुड़ी मांगों को पूरा करना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है। आने वाले कुछ दिनों में आपको पश्चिम बंगाल में प्रतीकवाद का ही खेल नजर आएगा।

2 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

हाय हाय राम नाश हो तेरा

मजाक में नही कर रहा हूं :)

Anonymous said...

दंड भेद साम दाम। नंदीग्राम नंदीग्राम।

एक गली सात घर। जल रहे धधक कर।
तीस जन हैं किधर। भटक रहे दर-बदर।

चारों ओर त्राहिमाम। नंदीग्राम नंदीग्राम।

क़त्‍ल की कहानियां। ज़ख़्म की निशानियां।
जहां-तहां अनगिनत। उजड़ गये आशियां।

स्‍याह रात थकी शाम। नंदीग्राम नंदीग्राम।

गांव गली शहर से। गुजरात से विदर्भ से।
इंसाफ़ की पुकार है। वे बढ़ रहे हैं तेज़ तेज़।

हो गया बंगाल जाम। नंदीग्राम नंदीग्राम।

ये कौन सी बहार है। ये माकपा सरकार है।
जो कर रही है अनसुनी। ग़रीब की गुहार है।

क्रूर बुद्धिहीन वाम। नंदीग्राम नंदीग्राम।

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