Sunday, December 30, 2007
इंतजार कीजिए इस साल की मेरी आखिरी पोस्ट का!
दिसंबर, 2007 मेरे लेखकीय जीवन का शायद पहला महीना है, जब मैंने प्रिंट के लिए कुछ भी नहीं लिखा। नए साल से पहले का रिजोल्यूशन है कि ऐसा महीना फिर कभी नहीं आने दूंगा। बल्कि ऐसा कोई अलिखा हफ्ता भी, उम्मीद है कि फिर कभी नहीं आएगा। अपने आप से मैंने कहा है कि प्रिंट के लिए लिखना बंद तभी होना चाहिए, जब प्रिंट पूरी तरह निरर्थक हो जाएगा। प्रिंट के लिए एक महीने तक न लिख पाना समय की कमी की वजह से नहीं हुआ, बल्कि इसकी वजह था मानसिक आलस्य। इस आलस्य ने मुझे एक महीने तक प्रिंट के लिए मार डाला। इसलिए इस साल मेरी टेबल पर लिखा होगा - आदमी परिश्रम से नहीं मरता, आलस से मरता है।
बहरहाल ये महीना भारतीय समाज के बारे में कुछ रचनाएं पढ़ने, भविष्य के लिए योजनाएं बनाने, ब्लॉग चर्चा में शामिल होने, खास तौर पर अजित वडनेरकर, विजय शंकरऔर आलोक पुराणिक का ब्लॉग पढ़ने और इरफान तथा अशोक पांडे का ब्लॉग सुनने के नाम रहा। ईस्निप्स से बांग्ला के गाने भी खूब सुने। सलिल चौधुरी से लेकर सुमन कबीर तक। दो वार-मूवी देखी। दूसरे विश्वयुद्ध वाली। बंद होने से ठीक पहले चाणक्य सिनेमा की तीर्थयात्रा भी कर आया। वाणी प्रकाशन पहुंचकर तस्लीमा का समर्थन कर आया। नंदीग्राम पीड़ितों से मुलाकात भी हो गई।
इस बीच उत्तर प्रदेश बिहार और झारखंड की राजनीति पर नजर बनी हुई है। दवाओं का देसी-विदेशी खेल, अमेरिका की घरेलू राजनीति और इराक - अफगानस्तान - पाकिस्तान हमेशा की तरह रडार पर रहे। पश्चिम बंगाल के समाज और वहां की राजनीति पर लगभग साल भर से लगा हूं। इस विषय पर भी कुछ महत्वपूर्ण मिला तो आप तक पहुंचाऊंगा।
यहां शायद ये सफाई देने की जरूरत है कि बहुत सारे लोगों की तरह लिखना मेरे लिए हॉबी या लक्जरी नहीं है। मेरा ज्यादातर लेखन मजबूरी का लेखन है। जब लिखने की जरूरत आ जाती है तो न लिखने तक सो नहीं पाता हूं। आस पास कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है या दिख जाता है कि लिखे बगैर नहीं रहा जाता। वही सब आप लोगों को झेलना पड़ता है। आप लोग नहीं पढ़ेंगे तो भी लिखना पड़ेगा।
साल के आखिरी दिनों की तंद्रा हर्षवर्धन की एक पोस्ट और उसपर आई टिप्पणियों ने भगा दी है। इसका नतीजा ये हुआ है कि सेल्फ से कुछ ग्रंथ निकलकर टेबल और बिस्तर पर पहुंच गए हैं। फिर नोट्स बनने लगे हैं। कुछ ऑनलाइन सामग्री मिली है, कुछ की तलाश है। नेशनल आर्काइव से कुछ तथ्य चाहिए। धन्यवाद हर्ष, इस पोस्ट के लिए क्योंकि वो न होता तो ये सब कहां होता!
Friday, December 28, 2007
11 साल के बच्चे की पहली हिंदी पोस्ट
तारेजमीं पर फिल्म देखी। वो भी चाणक्या में। सिनेमा हॉल हमेशा के लिए बंद होने से एक दिन पहले। फिल्म अच्छी थी। लेकिन और अच्छी हो सकती थी। इसका अंत दूसरी तरह से होना चाहिए था।
ईशान या ईनू पढ़ने लिखने में तेज नहीं है। लेकिन फिल्म के अंत में दिखाते हैं कि वो पेंटिंग में सबसे तेज है। इसलिए सारे बच्चे और टीचर्स भी उसके लिए क्लैप करते हैं। उसके माता पिता भी उसे बहुत प्यार करने लगते हैं क्योंकि वो पेंटिंग कॉम्पिटीशन में जीत जाता है।
लेकिन फिल्म तो अच्छी तब बनती जब ईशान अच्छा पेंटर भी नहीं बनता या कुछ भी अच्छा नहीं कर पाता तो भी लोग उसे समझते और प्यार देते। हर बच्चा कुछ न कुछ बहुत अच्छा करे ये उम्मीद नहीं करना चाहिए। ये जरूरी तो नहीं है कि वो कुछ बढ़िया करे ही। कोई भी बच्चा एवरेज हो सकता है, एवरेज से नीचे भी हो सकता है। लेकिन इस वजह से कोई उसे प्यार न दे ये तो गलत है।
सलामत रहे दोस्ताना नताशा-अनुराधा का (भाग-2)
हमने फोन पर हुए कई संवादों में पुराने दिनों को याद किया और कई बार कल्पनाओं में साथ-साथ वहां पहुंच भी गए। लेकिन वहां जाने के कुछ दिन पहले उसने बताया कि उसके पति को उन्ही दिनों में कुछ जरूरी काम है इसलिए वे नहीं आ सकेंगे। इधर मेरे पति के भी साथ न आ पाने की स्थिति बन रही थी। तो मैंने प्रस्ताव किया कि हम ही चलें अपने बच्चों को लेकर बचपन की सैर पर। उसने घर में बात की और बताया कि दो बच्चों को उनकी नानी के पास छोड़ेगी और दो को साथ लेकर आएगी। बेहतर।
फिर अगले दिन उसका फोन आया तो वह फूट ही पड़ी -"मैं नहीं आ सकती। कोई आने नहीं दे रहा है। सबको लगता है मैं अकेले कैसे पहुंच पाऊंगी वहां और हम ' अकेले-अकेले' कैसे घूमेंगे एक 'नए' शहर में वो भी बच्चों को लेकर। इन लोगों ने तो मुझे साड़ी में लिपटी गुड़िया बना कर रख दिया है। इन्हें लगता है मैं अकेले कुछ नहीं कर सकती। अब मैं इन्हें कैसे समझाऊं मैं क्या थी यहां आने के पहले।" मैं सुन रही थी 20 साल पहले बॉटनी में एम एस सी, कंप्यूटर एप्लिकेशंस में डिप्लोमा लेने वाली की व्यथा और याद कर रही थी एक और नताशा को जो पेड़ों की कठिन डालों पर भी हम सबसे पहले चढ़ जाती, किसी ' बाहरी ताकत' से लड़ाई में हम डरपोकों के सामने कमर पर हाथ रखे तन कर खड़ी हो जाती मजबूत दीवार बनकर, कभी स्कार्ट-शर्ट पर छोटी सी टाई लगाती तो कभी ट्राउजर्स पहने बजाज स्कूटर दौड़ाती उसकी छोटी-मोटी मरम्मत करती और किसी टक्कर में दांत तुडाकर अगले दिन फिर तैयार रहती उसी स्कूटर की सवारी को, जबकि हम पिद्दी सी लूना (मोपेड) से ही संतुष्ट रहते, हर खेल में लड़कों से मुकाबले को तैयार रहती, स्कूल की दौड़ों में अपने हाउस को जितवाती...
Thursday, December 27, 2007
टुकड़े जिंदगी के
मेरी, आपकी और हमारे आस-पास बिखरी जिंदगियों के कुछ टुकड़ों को, जो ध्यान देने लायक लगे, शब्दों के जरिए सामने रखने की कोशिश। इसमें घटना और उसके संदर्भों को सीधे-सीधे बयान करने पर जोर होगा, टिप्पणी-विमर्श-मीमांसा का पक्ष आपके जिम्मे रहेगा। दरअसल प्रणव प्रियदर्शी (इस ब्लॉग के संस्थापक साथी) ने मुझे उकसाया महिला मुद्दों पर कुछ लिखने के लिए। तो मैंने अंगुली से पोहंचे तक पहुंचने के ख्वाब देख डाले।
सलामत रहे दोस्ताना नताशा-अनुराधा का (भाग-1)
नताशा मेरी बचपन की सहेली है। उस बचपन की जब हम दोस्ती का मतलब नहीं जानते थे। बस, खेलने के लिए हर शाम घर से निकलते, जम कर खेलते और संझा-बाती होते ही (हमें हिदायत थी- कालोनी में एक भी घर की या सड़क किनारे की बत्ती जली तो फौरन घर लौटो) अपने-अपने घरों की तरफ दौड़ जाते। मेरी उम्र थी तीन साल और नताशा की, इससे कोई आठ महीने ज्यादा। हम साथ बड़े हुए, शादियां और बच्चे भी हुए और सब कुछ ठीक-ठाक रहा।
मैं दिल्ली में सरकारी नौकरी में,एकल परवार में और वह उज्जैन में एक संयुक्त व्यापारी परिवार में। बीच-बीच में, दो-तीन साल में मुलाकातें होती रहीं और चिट्ठी-पत्री भी जारी रही। उसकी तीन बेटियां हुईं। फिर एक दिन बातों बातों में उसने जाहिर किया कि उसे परिवार को और बढ़ाने में कोई गुरेज नहीं, बेटे की चाह में, और दरअसल वह जल्द ही यह कर गुजरने की तैयारी में है। "घर में सब कहते हैं इतना बड़ा कारोबार है, उसे चलाने वाला भी तो कोई चाहिए न! और फिर इस बार उज्जैन के सिंहस्थ मेले में एक बाबाजी ने मेरा माथा देखकर ही बता दिया था कि मेरी चौथी संतान बेटा होगी। "
इतना पढ़-लिख कर भी घर-समाज के सामने सर झुकाए चलती जा रही है मेरी बाल सखी। क्या उसके परिवार को लगता है कि बड़ी होकर तीनों बेटियों में से एक भी इतनी काबिल न होगी कि उस कारोबार को संभाल सके, और इसलिए वह दुबली-पतली चपला एक बेटे की बारी आने तक बच्चे पैदा करते जाने और अपनी सेहत बिगाड़ते जाने को तैयार है?
मैं इस ख्याल से ही आतंकित हो उठी और वही सहज सवाल कर बैठी- "अगर फिर बेटी हुई तो?" "तो तुझे दे दूंगी, तू भी तो एक बेटी चाहती थी जबकि हुआ बेटा। " उसकी मासूमियत अब तक बरकरार है। "पता है, हमारे पड़ोस में ऐसा ही हुआ दो सहेलियों में। एक को लड़की हुई तो उसकी सहेली ने दस दिन बाद ही उसे गोद ले लिया। मेरी बेटी तेरे पास पलेगी दिल्ली में।"
मैंने हामी भर दी- "ठीक है, मैं तुम्हारी बेटी को जरूर अपने पास रखूंगी, बड़ा करूंगी लेकिन एक शर्त पर कि फिर तुम और बच्चों के बारे में नहीं सोचोगी।" उस वक्त हमारी बात-चीत वहीं खत्म हो गई।
Tuesday, December 25, 2007
क्यो हमसे ज्यादा प्रामाणिक मानी जाती है मोदी की आवाज?
कुछ लोगों को नरेन्द्र मोदी की जीत पर पुलकित होने वालो की बुद्धि पर तरस आता है तो कुछ अन्य को इस बात पर हैरत होती है कि कोई मोदी जैसे व्यक्ति की निंदा भी कर सकता है, वह भी उसकी जीत के वक़्त. दिलीप मंडल ने बिलकुल ठीक लिखा कि चुनाव जीतना और सही या गलत होना - दोनों दो अलग बातें हैं.
मगर इस बात मे भी दो राय नही कि लोकतंत्र मे किसी भी फैसले या नीति के लिए अन्तिम कसौटी जनता की अदालत को माना जाता है. ऐसे मे अगर आज मोदी समर्थक हालिया जनादेश को अपने सही होने का प्रमाण बताना चाहें तो उसे सीधे खारिज नही किया जा सकता. हाँ लोकतंत्र ही हम सबको बहुमत से असहमत होने का अधिकार और असहमति का आदर करने की तमीज भी देता है. (यह अलग बात है कि मोदी लोकतंत्र की इसी खूबी को सबसे ज्यादा खतरनाक मानते हैं और इसे ही नष्ट करने पर आमादा हैं). इसीलिए दिलीप ने कहा है कि जिन आधारों पर वे मोदी को गलत मानते हैं वे आधार मोदी की चुनावी जीत के बावजूद कायम हैं, और यह कि इसीलिए वे अपनी इस राय पर कायम रहेंगे भले मोदी दसियों चुनाव जीत जाएं.
मगर यहाँ सवाल सिर्फ एक दिलीप मंडल का या कुछ दिलीप मंडलों का नही है. दिलीप मंडल जिन्दगी भर मोदी से असहमत रह सकते हैं और उनकी इस पूरी जिन्दगी के दौरान नरेन्द्र मोदी गोधरा के सहारे दंगे करवाने का सिलसिला लगातार जारी भी रख सकते हैं. सवाल यह है कि दिलीप मंडल जैसे लोगों की बातें क्यों असरहीन साबित हो रही हैं और क्यों मोदी जैसे लोगों की बातें गुजरात के मतदाता के एक बडे हिस्से को प्रभावित करती दिख रही हैं?
जवाब शायद यह है कि जिसे हम धर्मनिरपेक्ष राजनीति कहते हैं वह भी आज अपने तर्क उसी साम्प्रदायिक राजनीति से ग्रहण करती है. ऊपरी तौर पर ऐसा न भी दिखे तो मूलतः दोनों के तर्कों मे अंतर नही है. अगर पेड़ के उदाहरण से समझा जाये तो राजनीति की उक्त दोनों धाराओं के लोग एक ही पेड़ की अलग-अलग डालो पर बैठे हैं. वे अपनी डाल को काटने की 'मूर्खता' नही करते, दूसरे की डाल काटने की कोशिश करते हैं, लेकिन इस क्रम मे पेड़ की जड़ तक पहुंच कर उस पर वार करने का उनका दावा खोखला साबित हो जाता है.
इतना ही नही चूँकि दोनों राजनीति मूलतः एक ही है तो जो उसे ज्यादा साफ शब्दों मे प्रकट करे वही ज्यादा प्रामाणिक माना जायेगा. नतीजा यह होता है कि कथित साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली भाजपा और उसमे भी कट्टर हिंदुत्व की बात करने वाले मोदी ज्यादा प्रमाणिकता प्राप्त कर लेते हैं. शंकर सिंह वाघेला जैसे लोग न इधर के रहते हैं न उधर के.
लेकिन बात सिर्फ वाघेला की नही कथित छद्म धर्मनिरपेक्ष राजनीति की वकालत करने वाले पूरे समूह की है. हम बुद्धिजीवी भी इससे बाहर नही हैं.
कई असुविधाजनक सवालों के जवाब हमे भी देने होंगे. हमे यह बताना होगा कि हिन्दू के रूप मे कोई सवाल उठाना अगर साम्प्रदायिक सोच का प्रतीक है तो मुस्लिम सवाल को उठाना प्रगतिशीलता का प्रमाण क्यों मान लिया जाता है? अगर सवर्ण दृष्टि दोषपूर्ण है तो दलित दृष्टि प्रगतिशील कैसे हो सकती है? अगर राजनीति या समाज को धर्म के चश्मे से देखना हानिकारक है तो जाति के चश्मे से देखना लाभदायक कैसे हो सकता है?
क्या ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं हैं? हिदू दृष्टि और मुस्लिम दृष्टि मे मूलतः क्या अंतर हो सकता है? (कृपया हिन्दू या मुस्लिम के रूप मे इसका उत्तर न ढूंढें). इसी प्रकार सवर्ण और दलित सोच भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
चूंकि हमारी मूल आपत्ति इस बात पर है कि भावनाओं के सहारे लोगों को हांकने की कोशिश नही होनी चाहिए और उपरोक्त सभी मुद्दे हमारी भावनात्मक पहचानो से जुडे हैं, इसीलिए इन पर आधारित बहस हमे किसी सर्वथा अलग निष्कर्ष की ओर नही ले जायेगी. वैसे ही जैसे इन पर आधारित राजनीति किसी बुनियादी तौर पर अलग, बेहतर समाज की नींव नही रख पायेगी.
और आज की तारीख मे हम न तो बुनियादी तौर पर अलग बहस शुरू कर पा रहे हैं, ना ही ऐसी राजनीति की जमीन बना पा रहे हैं. इसीलिए नरेन्द्र मोदियों के मुकाबले हमारी-आपकी आवाज नक्कारखाने मे तूती की आवाज ही साबित होनी है.
Monday, December 24, 2007
हे मोदी की जीत पर पुलकित होने वालों...
मेरी परिभाषा कहती है कि मोदी जिस बुनियाद पर खड़े हैं, मोदी जिसके लिए देश और दुनिया में जाने जाते हैं, लोकतंत्र में उस विचार की नैतिक सत्ता नहीं है। चुनाव तो शाहबुद्दीन भी जीतता है, सूरजभान भी जीतता है, मदन भैया भी जीत जाता है, गवली भी जीतता है, सारे डॉन चुनाव जीतते हैं, शराब माफिया, तस्कर सभी तो चुनाव जीतते हैं, तो क्या आप उनकी भी इसलिए जय जयकार करेंगे कि उन्होंने जनादेश हासिल कर लिया है। दुनिया के ज्यादातर तानाशाह चुनाव जीत कर ही तो आते हैं। तो लगाइए हिटलर जिंदाबाद के नारे।
जो मोदी गोधरा कांड के बाद की हिंसा को सही ठहराता है, वो मोदी धिक्कार के ही योग्य है और शर्म आनी चाहिए उन लोगों को जो हिटलर के लिए जिंदाबाद करते हैं। (ये नहीं भूलना चाहिए कि गोधरा कांड की निंदा करने में में जिन्हें शर्म आती है, उनसे मोदी को ताकत मिलती है।) लोकतंत्र में राजकाज को जिस नैतिक बल के आधार पर चलना चाहिए, वो बल मोदी उस समय खो देते हैं जब वो सोहराबुद्दीन की एनकाउंटर में हत्या को सही ठहराते हैं। सोहराबुद्दीन अपराधी था, व्यापारयों से हफ्ता वसूली करता था तो भी क्या पूरे देश में जिन पर भी ऐसे आरोप हैं उन्हें पुलिस गोली मार दे। और कौन साबित करेगा कि ये आरोप सही हैं। क्या इसके लिए शहरों में जनमत संग्रह कराएंगे?
मोदी की आलोचना करने का मतलब ये नहीं है कि कांग्रेस कोई पाक साफ है। मोदी के काल में जितना बड़ा दंगा हुआ, उससे बड़े दंगे कांग्रेस ने कराए हैं। गुजरात में भी और गुजरात के बाहर भी। दंगे कभी मुसलमानों के खिलाफ तो कभी सिखों के खिलाफ। दंगे कराने में मोदी तो कांग्रेसियों के मुकाबले बच्चे हैं। अभी के दिनों को देखें तो हत्या एं कभी पूर्वोत्तर में कराई जाती है तो कहीं नक्सली के नाम पर आदिवासियों का संहार कर रही है कांग्रेस। वामपंथियों का कारनामा आप पश्चिम बंगाल में लगातार देख ही रहे हैं। ऐसे लोग जब मोदी की निंदा करते हैं तो वो प्रहसन से ज्यादा कुछ नहीं है।
तेल निकालने वाली जाति के मोदी के खिलाफ इस बार कांग्रेस ने सवर्ण गोलबंदी की कोशिश की थी। कांग्रेस गुजरात में सेकुलर राजनीति के लिए नहीं जानी जाती है। इस बार भी वो सेकुलर राजनीति नहीं कर रही थी। वो जाति की राजनीति कर रही थी। मोदी भी पटेल वर्चस्व के खिलाफ जाति की ही राजनीति कर रहे थे। जाति की राजनीति में मोदी ने कांग्रेस को पीट दिया। सांप्रदायिक नारों के साथ मोदी ने सवर्णों के बड़े हिस्से को भी गोलबंद कर लिया और केशुभाई से लेकर गोवर्धन झड़फिया और कांग्रेसी मुंह ताकते रह गए।
बहरहाल मोदी की जीत के समय में भी मैं मोदी की निंदा करता हूं। वैसी तमाम विचारधाराओं के क्षय की कामना करता हूं जो किसी समुदाय के खिलाफ घृणा पर कायम है। मोदी और बुद्धदेव जीवन पर्यंत चुनाव जीतते रहे तो भी मैं उनसे असहमत होने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करना चाहता हूं। जो भी नेता और व्यक्ति ऐसा देश बनाना चाहते हैं, जहां हमारे बच्चे और बच्चियां चैन से न जी सकें, उनके और उनके विचार के नाश की कामना करता हूं। - दिलीप मंडल
Sunday, December 23, 2007
हमारी संस्कृति और जाति व्यवस्था को मत छेड़ो प्लीज़...
क्या देश के बीते लगभग एक हजार साल के इतिहास की हम ऐसी कोई सरलीकृत व्याख्या कर सकते हैं? ऐसे नतीजे निकालने के लिए पर्याप्त तथ्य नहीं हैं। लेकिन हाल के वर्षों में कई दलित चिंतक ऐसे नतीजे निकाल रहे हैं और दलित ही नहीं मुख्यधारा के विमर्श में भी उनकी बात सुनी जा रही है। इसलिए कृपया आंख मूंदकर ये न कहें कि ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा है।
भारत में इन हजार वर्षों में एक के बाद एक हमलावर आते गए। लेकिन ये पूरा कालखंड विदेशी हमलावरों का प्रतिरोध करने के लिए नहीं जाना जाता है। प्रतिरोध बिल्कुल नहीं हुआ ये तो नहीं कहा जा सकता लेकिन समग्रता में देखें तो ये आत्मसमर्पण के एक हजार साल थे। क्या हमारी पिछली पीढ़ियों को आजादी प्रिय नहीं थी? या फिर अगर कोई उन्हें अपने ग्रामसमाज में यथास्थिति में जीने देता था, उनकी पूजा पद्धति, उनकी समाज संरचना, वर्णव्यवस्था आदि को नहीं छेड़ता था, तो वो इस बात से समझौता करने को तैयार हो जाते थे कि कोई भी राजा हो जाए, हमें क्या?
ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इसका जवाब ढूंढने की कोई कोशिश अगर हुई है, तो वो मेरी जानकारी में नहीं है। देश की लगभग एक हजार साल की गुलामी की समीक्षा की बात शायद हमें शर्मिंदा करती है। हम इस बात का जवाब नहीं देना चाहते कि हजारों की फौज से लाखों की फौजें कैसे हार गई। हम इस बात का उत्तर नहीं देना चाहते कि कहीं इस हार की वजह ये तो नहीं कि पूरा समाज कई स्तरों में बंटा था और विदेशी हमलावरों के खिलाफ मिलकर लड़ने की कल्पना कर पाना भी उन स्थितियों में मुश्किल था? और फिर लड़ने का काम तो वर्ण व्यवस्था के हिसाब से सिर्फ एक वर्ण का काम है!
इतिहास में झांकने का मकसद अपनी पीठ पर कोड़े मारकर खुद को लहूलुहान कर लेना कतई नहीं हो सकता, लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि गलतियों से न सीखने वाले दोबारा और अक्सर ज्यादा बड़ी गलतियां करने को अभिशप्त होते हैं।
भारत पर राज करने शासकों में से शुरूआती मुगल शासकों ने अपेक्षाकृत निर्बाध तरीके से (हुमायूं के शासनकाल के कुछ वर्षों को छोड़कर) देश पर राज किया। मुगल शासकों ने बाबर के समय से ही तय कर लिया था कि इस देश के लोग अपना जीवन जिस तरह चला रहे हैं, उसमें न्यूनतम हस्तक्षेप किया जाए। जजिया टैक्स लगाना उस काल के हिंदू जीवन में एकमात्र ऐसा मुस्लिम और शासकीय हस्तक्षेप था, जिससे आम लोगों को कुछ फर्क पड़ता था। ये पूरा काल अपेक्षाकृत शांति से बीता है। औरंगजेब ने जब हिंदू यथास्थिति को छेड़ा तो मुगल शासन के कमजोर होने का सिलसिला शुरू हो गया।
उसके बाद आए अंग्रेज शासकों ने भारतीय जाति व्यवस्था का सघन अध्ययन किया। उस समय के गजेटियर इन अध्ययनों से भरे पड़े हैं। जाति व्यवस्था की जितनी विस्तृत लिस्ट आपको अंग्रेजों के लेखन में मिलेगी, उसकी बराबरी समकालीन हिंदू और हिंदुस्तानी लेखन में भी शायद ही कहीं है। एक लिस्ट देखिए जो संयुक्त प्रांत की जातियों का ब्यौरा देती है। लेकिन अंग्रेजों ने भी आम तौर पर भारतीय परंपराओं खासकर वर्ण व्यवस्था को कम ही छेड़ा।
मैकाले उन चंद अंग्रेज अफसरों में थे, जिन्होंने जाति व्यवस्था और उससे जुड़े भेदभाव पर हमला बोला। समान अपराध के लिए सभी जातियों के लोग समान दंड के भागी बनें, इसके लिए नियम बनाना एक युगांतकारी बात थी। पहले लॉ कमीशन की अध्यक्षता करते हुए मैकाल जो इंडियन पीनल कोड बनाया, उसमें पहली बार ये बात तय हुई कि कानून की नजर में सभी बराबर हैं और अलग अलग जातियों को एक ही अपराध के लिए अलग अलग दंड नहीं दिया जाएगा। शिक्षा को सभी जाति समूहों के लिए खोलकर और शिक्षा को संस्कृत और फारसी जैसी आभिजात्य भाषाओं के चंगुल में मुक्त करने की पहल कर मैकाले ने भारतीय जाति व्यवस्था पर दूसरा हमला किया।
गुरुकुलों से शिक्षा को बाहर लाने की जो प्रक्रिया मैकाले के समय में तेज हुई, उससे शिक्षा के डेमोक्रेटाइजेशन का सिलसिला शुरू हुआ। अगर आज देश में 50 लाख से ज्यादा (ये संख्या बार बार कोट की जाती है, लेकिन इसके स्रोत को लेकर मैं आश्वस्त नहीं हो, वैसे संख्य़ा को लेकर मुझे संदेह भी नहीं है) दलित मिडिल क्लास परिवार हैं, तो इसकी वजह यही है कि दलितों को भी शिक्षा का अवसर मिला और आंबेडकर की मुहिम और पूना पैक्ट की वजह से देश में आरक्षण की व्यवस्था हुई।
ये शायद सच है कि मैकाले इन्हीं वजहों से आजादी के बाद देश की सत्ता पर काबिज हुई मुख्यधारा की नजरों में एक अपराधी थे। भारतीय संस्कृति पर हमला करने के अपराधी। देश को गुलाम बनाने वालों से भी बड़े अपराधी। हम विदेशी हमलावरों को बर्दाश्त कर लेते हैं, लेकिन हमारी जीवन पद्धति खासकर वर्णव्यवस्था से छेड़छाड़ करने वाला हमारे नफरत की आग में जलेगा।
वीपी सिंह की मिसाल लीजिए। उन्होंने जीवन में बहुत कुछ किया। उत्तर प्रदेश में डकैत उन्मूलन के नाम पर पिछड़ों पर जुल्म ढाए, राजीव गांधी की क्लीन इमेज को तार तार कर दिया, बोफोर्स में रिश्वतखोरी का पर्दाफाश किया, लेकिन मुख्यधारा उन्हें इस बात के लिए माफ नहीं करेगी कि उन्होंने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की कोशिश की। हालांकि वीपी सिंह ने ये कदम राजनीतिक मजबूरी की वजह से उठाया था और वो पिछड़ों के हितैषी कभी नहीं रहे फिर भी वीपी सिंह सवर्ण मानस में एक विलेन हैं और पूरी गंगा के पानी से वीपी सिंह को धो दें तो भी उनका ये 'पाप' नहीं धुल सकता। ये चर्चा फिर कभी।
जाहिर है मैकाले को लेकर दो एक्सट्रीम चिंतन हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या इसके लिए मैकाले की पूजा होनी चाहिए या उनकी तस्वीर को गोली मार देनी चाहिए। इस अतिवाद को छोड़कर देखें तो मैकाले के समय का द्वंद्व नए और पुराने के बीच, प्राच्य और पाश्चात्य के बीच का था। मैकाले उस द्वंद्व में नए के साथ थे, पाश्चत्य के साथ थे। अंग्रेजी शिक्षा के लिए उनके दिए गए तर्क उनके समग्र चिंतन से अलग नहीं है। इसलिए ये मानने का कोई आधार नहीं है कि मैकाले ने साजिश करके भारत में अंग्रेजी शिक्षा की नींव डाली। उनका मिनिट ऑन एजुकेशन (1835) पढ़ जाए। भारत के प्रति मैकाले में न प्रेम है न घृणा। एक शासक का मैनेजेरियल दिमाग है, जो अपनी मान्यताओं के हिसाब से शासन करने के अपने तरीके को जस्टिफाई कर रहा है।
मैकाले की इस बात के लिए प्रशंसा करना विवाद का विषय है कि उनकी वजह से देश में अंग्रेजी शिक्षा आई और भारत आज आईटी सेक्टर की महाशक्ति इसी वजह से बना हुआ है और इसी ज्ञान की वजह से देश में बीपीओ इंडस्ट्री फल फूल रही है। चीन में मैकाले जैसा कई नहीं गया। चीन के लोगों ने अंग्रेजी को अपनाने में काफी देरी की, फिर भी चीन की अर्थव्यवस्था भारत से कई गुना बड़ी है। लेकिन चीन का आर्थिक और सामाजिक परवेश हमसे अलग है और ये तुलना असमान स्थितियों के बीच की जा रही है और भाषा का आर्थिक विकास में योगदान निर्णायक भी नहीं माना जा सकता। - दिलीप मंडल
Friday, December 21, 2007
भारतीय इतिहास का दा विंची कोड
उस निमंत्रण पत्र की कुछ पंक्तियां यहां रख रहा हूं। पार्टी में मैं जा नहीं पाया, इसलिए वहां क्या हुआ, इसका ब्यौरा देना संभव नहीं है। आप भी पढ़िए और चौंकने के लिए तैयार हो जाइए -
मैकाले शायद पहला शख्स था जिसने भारत के स्वतंत्र होने की कल्पना की थी। मैकाले का 10 जुलाई, 1833 को ब्रिटिश संसद में दिया गया भाषण देखिए - "भारत के लोग कुशासन में रहें और हमारे गुलाम रहें, इससे बेहतर है कि वो आजाद हों और अपना शासन अच्छे से चलाएं।"
इसी भाषण में मैकाले कहते हैं- "हमें कहा जाता है कि ऐसा समय कभी नहीं आएगा जब भारतीय लोग सिविल और मिलिट्री सर्विस में ऊंचे पदों पर आसीन होंगे। मैं इस सोच का कड़ा प्रतिवाद करता हूं।"
रंग में भारतीय पर विचार में अंग्रेज वाला बार बार दोहराया जाने वाला पूरा कोट इस तरह है-
“"In point, I fully agree with the gentlemen to whose general views I am opposed to. I feel with them that it is impossible for us, with our limited means, to attempt to educate the body of the people. We must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern; a class of persons, Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, in morals, and in intellect. To that class we may leave it to refine the vernacular dialects of the country, to enrich those dialects with terms of science borrowed from the Western nomenclature, and to render them by degrees fit vehicles for conveying knowledge to the great mass of the population”.
भारतीय इतिहास की हर किताब में इस कोटेशन की पहली और आखिरी लाइन का जिक्र नहीं होता। पहली लाइन में इस बयान का संदर्भ है कि "जब तक हम भारत के सभी लोगों को शिक्षा दे पाने में समर्थ नहीं हो पाते हैं" जबकि आखिरी लाइन में बताया गया है कि किस तरह भारतीय भाषाओं में पश्चिमी शब्दावलियों का समावेश किया जाएगा ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक ज्ञान पहुंचाया जा सके।
भारतीय और अरबी साहित्य को नीचे दर्जे का मानने वाले मैकाले अपने देश के पुराने साहित्य के बारे में भी अच्छी राय नहीं रखते थे। इसलिए इस बारे में उनका विचार नस्लीय भेदभाव से कहीं ज्यादा नवीन और प्राचीन के टकराव का नतीजा है।
मैकाले का भारत पर दो कारणों से निर्णायक असर हुआ है। पहला तो शिक्षा के क्षेत्र में उनके विचारों को अंग्रेजी सरकार ने माना और देश में उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेजी माध्यम को मान्यता मिली। उनका दूसरा योगदान देश में आईपीसी और सीआरपीसी लागू करने की दिशा में था, जिसकी वजह से लगभग कई हजार साल बाद भारत में अलग अलग जाति के द्वारा किए गए समान अपराध के लिए समान दंड के कानून का चलन शुरू हुआ।
(मेरी टिप्पणी- मैकाले से नफरत करने के बावजूद भारत में आज भी ये दो चीजें बदली नहीं हैं।)
1933 के उसी भाषण के ये अंश देखिए।
"…सबसे बुरी व्यवस्था वो है जिसमें ब्राह्मणों के लिए हल्के दंड का प्रावधान है क्योंकि वो सृष्टिकर्ता के मुंह से उत्पन्न हुए हैं। जबकि पैरों से उत्पन्न शूद्रों के लिए कड़े दंड का प्रावधान हैं। जाति विभेद और भेदभाव के कारण भारत का काफी नुकसान हो चुका है।"
हिंदू धर्म और शिक्षा के बारे में मैकाले प्राच्यविदों को जवाब देते हैं -
" (आपकी बात मानें तो) हमें उन्हें गलत इतहास, गलत खगोलशास्त्र, गलत चिकित्साशास्त्र पढ़ाना होगा क्योंकि गलत बातें सिखाने वाला धर्म इनसे जुड़ा है... भारतीय युवकों को ये सिखाना उनका समय नष्ट करना होगा कि गधे को छूने के कैसे खुद के पवित्र करें और बकरी मारने के पाप से मुक्त कैसे मिलेगी।"
इस निमंत्रण पत्र के मुताबिक क्लाइव ने हिंदुस्तानियों को हराकर उन्हें गुलाम बनाया, ये बात हिंदू मुख्यधारा (सवर्ण चिंतन) बर्दास्त कर सकती है, करती है। इसलिए क्लाइव से नफरत करने की बात हमें नहीं सिखाई जाती। लेकिन भारतीय संस्कृति, जातिव्यवस्था, शिक्षा प्रणाली और धर्म को चुनौती देने वाला मैकाले को बर्दास्त कैसे किया जा सकता है?
(मेरी टिप्पणी)
एक सवाल है आपसे। आज कल्पना कीजिए अगर ब्रिटिश संसद की उस बहस में मैकाले की हार हो गई होती और प्राच्यविद जीत गए होते। उस आधुनिक भारत कि कल्पना कीजिए जहां के सभी विश्वविद्यालयों और इंस्टिट्यूट में संस्कृत और फारसी और ऊर्दू में पढ़ाई हो रही हो। और कल्पना कीजिए उस भारत की जहां एक ही अपराध के लिए ब्राहा्ण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र अलग-अलग सजाएं भुगत रहे होते।
यानी इस मैकाले में अभी बहुत जान है! कई सवाल खड़े करता है ये मसला। बहस में बने रहिए हमारे साथ। आगे इस निमंत्रण पत्र में लिखी बातों की सच्चाई जानेंगे और उस कोड को ब्रेक करने की कोशिश करेंगे, जिसका नाम आधुनिक भारतीय इतिहास है। अभी किसी फैसले पर मत पहुंचिए। मानस खुला रखिए और हो सके तो किसी कोने में पड़ी इतिहास की किताबों की धूल झाड़िए। क्योंकि हमारे ही देश के कुछ लोग मैकाले की तस्वीर को जूते नहीं मार रहे हैं, उसकी पूजा कर रहे हैं।
तो दोस्त, सतरंगी भारतीय समाज जितने जवाब देता है उससे कहीं ज्यादा सवाल खड़े करता है। हम सभी भाग्यशाली है कि इतने रोचक और तेजी से बदलते समय को देख पा रहे हैं। जारी रहेगी ये चर्चा।
क्या आपने "क्लाइव की औलाद" जैसी कोई गाली सुनी है?
कौन था क्लाइव
क्लाइव न होता तो क्या भारत में कभी अंग्रेजी राज होता? इतिहास का चक्र पीछे लौटकर तो नहीं जाता इसलिए इस सवाल का कोई जवाब नहीं हो सकता। लेकिन इतिहास हमें ये जरूर बताता है कि क्लाइव के लगभग एक हजार यूरोपीय और दो हजार हिंदुस्तानी सिपाहयों ने पलासी की निर्णायक लड़ाई (22 जून, 1757) में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हरा कर भारत में अंग्रेजी राज की नींव रखी थी। वो लड़ाई भी क्या थी? सेनानायक मीरजाफर ने इस बात का बंदोबस्त कर दिया था कि नवाब की ज्यादातर फौज लड़ाई के मैदान से दूर ही रहे। एक दिन भी नहीं लगे थे उस युद्ध में। उस युद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारतीय संपदा की लूट का जो सिलसिला शुरू किया, उसकी बराबरी दक्षिण अमेरिका में स्पेन के युद्ध सरदारों की मचाई लूट से ही की जा सकती है।
और कौन था मैकाले
मैकाले को भारतीय इतिहास का हर छात्र एक ऐसे शख्स के रूप में जानता है जिसने देश को तो नहीं लेकिन भारतीय मानस को जरूर गुलाम बनाया। हमारी सामूहिक स्मृति में इसका असर इस रूप में है कि हम जिसे विदेशी मिजाज का, देश की परंपरा से प्रेम न करने वाला, विदेशी संस्कृति से ओतप्रोत मानते हैं उसे मैकाले पुत्र, मैकाले की औलाद, मैकाले का मानस पुत्र, मैकाले की संतान आदि कहकर गाली देते हैं।
लेकिन भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक क्लाइव को लेकर हमारे यहां घृणा का ऐसा भाव आश्चर्यजनक रूप से नहीं है। आखिर ऐसा क्यों है। मैकाले जब भारत आया तो भारत में अंग्रेजी राज जड़ें जमा चुका था। मैकाले को इस बात के लिए भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता है कि उसने क्लाइव की तरह तलवार और बंदूक के बल पर एक देश को गुलाम बनाया। या कि उसने छल से बंगाल के नवाब को हरा दिया। मैकाले अपने हाथ में तलवार नहीं कलम लेकर भारत आया था।
लेकिन मैकाले फिर भी बड़ा विलेन है।
मैकाले हमारी सामूहिक स्मृति में घृणा का पात्र है तो ये अकारण नहीं है। मैकाले के कुछ चर्चित उद्धरणों को देखें। उसका दंभ तो देखिए
"मुझे एक भी प्राच्यविद (ओरिएंटलिस्ट) ऐसा नहीं मिला जिसे इस बात से इनकार हो कि किसी अच्छी यूरोपीय लाइब्रेरी की किताबों का एक रैक पूरे भारत और अरब के समग्र साहित्य के बराबर न हो।"
और उनके इस कथन को कौन भूल सकता है। प्रोफेसर बिपिन चंद्रा की एनसीईआरटी की इतिहास की किताब में देखिए।
" फिलहाल हमें भारत में एक ऐसा वर्ग बनाने की कोशिश करनी चाहिए जो हमारे और हम जिन लाखों लोगों पर राज कर रहे हैं, उनके बीच इंटरप्रेटर यानी दुभाषिए का काम करे। लोगों का एक ऐसा वर्ग जो खून और रंग के लिहाज से भारतीय हो, लेकिन जो अभिरूचि में, विचार में, मान्यताओं में और विद्या-बुद्धि में अंग्रेज हो।"
इतिहासकार सुमित सरकार मैकाले को कोट करते हैं-
"अंग्रेजी में शिक्षित एक पढ़ा लिखा वर्ग, रंग में भूरा लेकिन सोचने समझने और अभिरुचियों में अंग्रेज।"
भारतीय इतिहास की किताबों में मैकाले इसी रूप में आते हैं। पांचजन्य के एक लेख में मैकाले इस शक्ल में आते हैं-
लार्ड मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। लार्ड मैकाले की सोच थी कि हिंदुस्तानियों को अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है। अंग्रेज़ी जानने वालों को नौकरी में प्रोत्साहन देने की लार्ड मैकाले की पहल के परिणामस्वरूप काँग्रेसियों के बीच में अंग्रेज़ी परस्त काँग्रेसी नेता पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एकजुट हो गए कि अंग्रेज़ी को शासन की भाषा से हटाना नहीं है अन्यथा वर्चस्व जाता रहेगा और देश को अंग्रेज़ी की ही शैली में शासित करने की योजनाएँ भी सफल नहीं हो पाएँगी।...भाषा के सवाल को लेकर लार्ड मैकाले भी स्वप्नदर्शी थे, लेकिन उद्देश्य था, अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से गुलाम बनाना।
तो ऐसे मैकाले से भारत नफरत न करे तो क्या करे? लेकिन कहानी अभी खत्म नहीं हुई है, दोस्त।
Thursday, December 20, 2007
क्लाइव या मैकाले - किसे पहले जूते मारेंगे आप?
इन दो तस्वीरों को देखिए। इनमें ऊपर वाले हैं लार्ड क्लाइव और नीचे हैं लॉर्ड मैकाले। लॉर्ड वो ब्रिटेन में होंगे हम उन्हें आगे क्लाइव और मैकाले कहेंगे। एक सवाल पूछिए अपने आप से। कभी आपको अगरह कहा जाए कि इनमें से किसी एक तस्वीर को जूते मारो, या पत्थर मारो या गोली मारो या नफरत भरी नजरों से देखो। तो आपकी पहली च्वाइस क्या होगी।
अनुरोध इतना है कि इस सवाल को देखकर किसी नए संदर्भ की तलाश में नेट पर या किताबों के बीच न चले जाइएगा। अपनी स्मृति पर भरोसा करें, जो स्कूलों से लेकर कॉलेज और अखबारों से लेकर पत्रिकाओं में पढ़ा है उसे याद करें। और जवाब दें। ये सवाल आपको एक ऐसी यात्रा की ओर ले जाएगा, जिसकी चर्चा कम हुई है। जो इन विषयों के शोधार्थी, जानने वाले हैं, उनके लिए मुमकिन है कि ये चर्चा निरर्थक हो। लेकिन इस विषय पर मैं अभी जगा हूं, इसलिए मेरा सबेरा तो अभी ही हुआ है। इस पर चर्चा आगे जारी रहेगी।
Wednesday, December 19, 2007
ब्लॉग एक्सक्लूसिव: इंतजार कीजिए कल तक
देखना न भूलिएगा, सच के एक और पहलू को, इस एहसास के साथ कि असहमति हम सबका अधिकार है। इसे एक साथ कबाड़खाना, मोहल्ला , इयत्ता और रिजेक्टमाल पर एक ही दिन रिलीज करने की योजना है।
Tuesday, December 18, 2007
नोबेल पीस प्राइज को यहां से देखो!
पिछले साल का नोबेल शांति पुरस्कार बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक और उसके संस्थापक मुहम्मद यूनुस को संयुक्त रूप से दिया गया था। इस पुरस्कार को गरीब देशों में लोगों की गरीबी दूर करने के असरदार करार दिए गए तरीके-माइक्रोक्रेडिट- की कामयाबी के तौर पर देखा गया। लेकिन क्या मुहम्मद यूनुस को नोबेल शांति पुरस्कार मिलने का मामला इतना ही सीधा है? आइए मुहम्मद यूनुस, ग्रामीण बैंक और नोबेल शांति पुरस्कार से जुड़े कुछ ऐसे तथ्यों को देखें जिनकी चर्चा नहीं हुई है।
- मुहम्मद यूनुस दो प्रोजेक्ट चलाते हैं। ग्रामीण बैंक उनमें एक है और दूसरा है ग्रामीण फोन। भारत-बांग्लादेश सीमा पर अगर आप जाएंगे तो आसपास के इलाकों में अक्सर आपका मोबाइल फोन ग्रामीण फोन का सिग्नल पकड़ लेता है।
-ग्रामीण फोन 1997 से बांग्लादेश में मोबाइल सर्विस दे रहा है और देश में डेढ़ करोड़ लोग ग्रामीणफोन की सर्विस का इस्तेमाल करते हैं।
- ग्रामीण फोन में 38 फीसदी हिस्सेदारी ग्रामीण टेलीकॉम कॉरपोरेशन की है। और बाकी 62 फीसदी हिस्सा नार्वे की टेलीकॉम कंपनी टेलीनॉर की है। 50 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी की वजह से टेलीनॉर ही ग्रामीणफोन को संचालित करती है और ग्रामीणफोन का लोगो भी वही है जो टेलीनॉर का है।
- टेलीनॉर नार्वे की सबसे बड़ी टेलीकॉम कंपनी है और इसका पाकिस्तान, थाईलैंड और मलेशिया समेत 12 देशों में कारोबार फैला हुआ है। इन जानकारियों की पुष्टि आप ग्रामीणफोन की ऑफिशियल साइट पर कर सकते हैं।
- पिछले साल ग्रामीणफोन ने बांग्लादेश में तीन हजार करोड़ रुपए (नार्वे की करेंसी के हिसाब से 431 एनओके) का कारोबार किया। कंपनी का टैक्स आदि के भुगतान के बाद मुनाफा आया 1281 करोड़ रुपए। 62 फीसदी हिस्सेदारी के हिसाब से बांग्लादेश में फोन सर्विस देने पर टेलीनॉर ने एक साल में 794 करोड़ रुपए कमाए। इन आंकडों का पूरा ब्योरा आप इस लिंक पर देख सकते हैं।
- टेलीनॉर जिस देश, यानी नार्वे की कंपनी है, वहीं की नोबेल पीस कमेटी नोबेल शांति पुरस्कार देती है।
- टेलीनॉर का नोबेल पीस सेंटर के साथ पार्टनरशिप एग्रीमेंट है। इस सेंटर के लिए टेलीनॉर चार साल में 1.4 करोड़ एनओके यानी लगभग 10 करोड़ रुपए देगी। ये जानकारी आप टेलीनॉर की साइट पर कॉरपोरेट रिस्पांसिबिलिटी के लिंक पर जाकर देख सकते हैँ।
- पिछले साल नोबेल शांति पुरस्कार मिलने से पहले तक मुहम्मद यूनुस और टेलीनॉर के बीच ग्रामीणफोन के मालिकाना को लेकर झगड़ा चल रहा था। मुहम्मद यूनुस ने मशहूर बिजनेस मैगजीन फॉर्चून को 5 दिसंबर 2006 को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि टेलीनॉर बांग्लादेश से करोड़ों डॉलर बाहर ले जा रही है। साथ ही उन्होंने ये आरोप भी लगाया था कि टेलीनॉर ने ग्रामीणफोन में हिस्सेदारी लेते समय 1996 में ये बादा किया था कि छह साल में वो अपनी हिस्सेदारी ग्रामीण टेलीकॉम कॉरपोरेशन को बेच देगी। लेकिन उसने वादाखिलाफी की। ज्यादा जानकारी के लिए देखें (http://money.cnn.com/2006/12/04/news/international/yunos_telenor.fortune/index.htm )।
- मुहम्मद यूनुस को 10 दिसंबर, 2006 को नार्वे की राजधानी ओस्लो में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया। उससे एक दिन पहले 9 दिसंबर को मुहम्मद यूनुस टेलीनॉर के हेडक्वार्टर पहुंचे और वहां कपनी के सीईओ जॉन फ्रेडरिक बैकसास से मुलाकात की।
क्या आप में से किसी ने भी उस दिन के बाद मुहम्मद यूनुस का टेलीनॉर के खिलाफ कोई बयान किसी वेबसाइट या अखबार में देखा है? दूसरी ओर टेलीनॉर के सीईओ जॉन फ्रेडरिक बैकसास साफ कर चुके हैं कि ग्रामीण बैंक में अपनी हिस्सेदारी घटाने का उनका कोई इरादा नहीं है।
माइक्रोक्रेडिट की क्या है हकीकत?
और फिर बात उस चमत्कार की, जिसे माइक्रोक्रेडिट कहा जा रहा है और जिसकी भारत में भी काफी चर्चा है। माइक्रोक्रेडिट की सफलता के बावजूद बांग्लादेश दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक है। मानव विकास इंडेक्स में बांग्लादेश भारत से नीचे 139वें नंबर पर है। वहां की 49.5 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है। और ग्रामीण बैंक की कामयाबी के बावजूद बांग्लादेश की 80 फीसदी आबादी के दैनिक आमदनी 70 रुपए से कम है। ग्रामीण बैंक एक आदमी को औसत 5,000 रुपए से कम का कर्ज देता है और ब्याज दर कम से कम 20 फीसदी है। यानी नोबेल कमेटी जब कहती है कि ग्रामीण बैंक से बांग्लादेश में गरीबी दूर करने में मदद मिली है, तो ये सच नहीं है।
वैसे भी, नोबेल शांति पुरस्कार किसी को क्यों मिलता है?
अमेरिकी विदेश नीति में आक्रामकता के सबसे बड़े चैंपियन हेनरी किसींजर को नोबेल शांति पुरस्कार मिलना और महात्मा गांधी को ये पुरस्कार न मिलना क्या आपको चौंकाता है ? हेनरी किसींजर को दुनिया उस शख्स के रूप में जानती है जिनके अमेरिकी विदेश मंत्री रहने के दौरान अमेरिकी फौज ने कंबोडिया में भारी बमबारी की , जिनके समय में चीली गणराज्य के चुने हुए राष्ट्रपति एलेंदे की सीआईए ने हत्या कर दी, जिनकी शह पर पाकिस्तानी शासक जनरल याहिया खान ने पूर्वी पाकिस्तान में दो लाख लोगों का नरसंहार कराया , जिनके समर्थन से इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो ने ईस्ट तिमूर में एक लाख से ज्यादा लोगों की जान ले ली और जिनके विदेश मंत्री रहते हुए अर्जेटिना में फौजी शासकों ने कई हजार युवाओं मार डाला और उसकी खबर भी घरवालों को नहीं दी। किसीजर का अतीत जानना हो तो अमेरिकी मीडिया में चली बहस को या फिर विकिपीडिया जैसी किसी साइट को खंगाल कर देखिए।
ऐसे हेनरी किसींजर को 1973 में नोबेल शांति पुरस्कार देने वाली कमेटी ने इस साल अल गोर और आईपीसीसी को नोबेल शांति पुरस्कार दिया है। और हम भारत को लोग इतने भर से खुश हो रहे हैं आईपीसीसी का नेतृत्व इस समय एक भारतीय कर रहा है और हमें शायद ही इस बात का एहसास है कि ग्लोबल वार्मिंग के नाम पर चल रही राजनीति और अर्थनीति में हमारा कोई हित है भी या नहीं!
Monday, December 17, 2007
कहीं ब्लॉग को भी न लग जाए साहित्य वाला रोग!
अभय भाई के विचारों का आदर करता हूं। उनके लेखन का मैं कायल रहा हूं। और फिर हम कोई वेद तो रचते नहीं हैं कि श्रुति परंपरा से अपने लिखे को शब्दश: उसी रूप में बनाए रखा जाए। अभय भाई के लेख और उन पर आई टिप्पणियों पर सोचकर मैं अपनी नई राय बना सकता हूं। इसलिए अगर कोई हमारे संवाद को झगड़ा मानकर मजे लेने की सोच रहा है तो माफ कीजिए, ऐसे लोगों की मंशा पूरी का मेरा कोई इरादा नहीं है। लेकिन बात खरी-खरी होगी और स्वागत है आपका इस चर्चा में।
जो लोग इस चर्चा में नए हैं वो या तो ये लिंक देख लें या फिर मेरे सपनों के शीर्षक को पढ़ लें।
दरअसल इसी से जुड़ी मेरी एक और चिंता है कि बड़ी कठिनाइयों के बाद घुटनों के बल चलने की कोशिश कर रही हिंदी ब्लॉगकारिया का हाल हिंदी साहित्य जैसा न हो जाए। यानी हम कुछ लोग लिखेंगे- वही लोग पढ़ेंगे- वही लोग समीक्षा करेंगे- वही भाषण देंगे और वही एक दूसरे को पुरस्कार दे देंगे। हिंदी का साहित्य बरसों से जमे मठाधीशों और प्रकाशकों की कृपा से पाठकों से स्वतंत्र हो गया है। यानी साहित्यकार ही साहित्य का पाठक भी है। अधिकतम 500 का प्रिंट ऑर्डर इसी बीमारी की क्रोनिक अवस्था है।
कहीं ये बीमारी हमारे ब्लॉग न लग जाए। जिन चीजों और प्रवृत्तियों के निषेध की कामना मैंने की थी, वो मूल रूप में साहित्य जगत की बीमारियां है। ब्लॉगर्स के बीच कई बार अश्लीलता की हद तक पहुंचती आम सहमति, एक दूसरे की पीठ खुजाने की प्रवृत्ति, आपस में लिखा और आपस में ही पढ़कर वाह वाह करने जैसी टेंडेसी जिन्हें ठीक लगती हो, उन पर मेरा कोई जोर तो चलता नहीं है। लेकिन इन प्रवृत्तियों को गलत मानने के अपने अधिकार का मैं इस्तेमाल करना चाहता हूं।
हमारे कुछ दोस्त मानने को तैयार ही नहीं है कि इस भाईचारावाद से कोई नुकसान है। कुछ तो आंख मूदकर बैठे हैं और कह रहे हैं कि कहां है भाईचारावाद, हमें तो नहीं दिखता। इस बारे में मैने एक छोटा-सा सैंपल साइज लेकर एक अध्ययन किया है।
- अभय भाई के ब्लॉग निर्मल आनंद पर ये लेख लिखे जाते समय तक दिसंबर महीने में 15 पोस्ट हैं। इनमें ज्यादातर पोस्ट शानदार हैं और उन्हें गौर से पढ़ा जाना चाहिए। उनकी दृष्टि में विविधता है और जटिल बातों को सहज अंदाज मे कहने की कला उनसे सीखी जा सकती है।
- इन सभी पोस्ट पर कुल मिलाकर 130 टिप्पणियां है (भूल चूक लेनी देनी), जिन्हें अभय भाई सदुपदेश कहते हैं। इनमें कुछ स्पष्टीकरण अभय भाई के अपने हैं।
- दिसंबर महीने में अब तक इस पोस्ट पर टिप्पणियां भेजने वालों को देखें तो उनमें तीन लोग ऐसे हैं जिन्होंने 9-9 टिप्पणियां भेजी हैं। 15 पोस्ट में 9 बार एक ही आदमी की टिप्पणी। और ऐसी टिप्पणी करने वाले एक नहीं तीन लोग। एक शख्स ने 8 टिप्पणियां भेजी हैं। 7 टिप्पणी करने वाले भी एक हैं। 6 टिप्पणियां करने वाले भी हैं, 5 वाले भी और चार वाले भी। गिनती में गलती हो तो अभय भाई करेक्ट कर देंगे। लेकिन बात यहां ट्रेंड की है गिनती का मामला गौण है।
- पोस्ट करने वालों के नाम पब्लिक डोमेन में है और उन नामों का यहां जिक्र करने से कोई मकसद पूरा नहीं होता। इसलिए जिन्हें नामों में दिलचस्पी है, वो अपना 15 मिनट इस काम में खोटा कर सकते हैं।
अगर आप ब्लॉग को एक फलते-फलते माध्यम के तौर पर आगे बढ़ता हुआ देखना चाहते हैं, और एक साल में हिंदी ब्लॉग की संख्या 10,000 तक पहुंचने जैसे ख्वाब देख रहे हैं, तो ऊपर लिखी बात आपको असहज लगनी चाहिए। वरना तो साधुवाद है ही।
और एक महत्वपूर्ण बात। बार-बार एक ही टिप्पणीकार का किसी ब्लॉग पर आना अभय भाई की निजी समस्या नहीं है। सभी ब्लॉग का थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा ऐसा ही हाल है। इसलिए अभय भाई के खिलाफ कोई निंदा प्रस्ताव पारित करने से पहले अपने ब्लॉग के गिरेबां में झांककर देखिए। मैंने अपने यहां भी इस समस्या को इतनी ही गंभीर शक्ल में देखा है। इससे बचने का रास्ता निकालें। मुझे भी बताएं कि रास्ता क्या है?
दिलीप मंडल जैसों को गालियां तो बाद में भी दी जा सकती हैं।
Sunday, December 16, 2007
ब्लॉगर बड़ा या साहित्यकार?
बरसों पहले एक बात कही थी भाई राजेंद्र धोड़पकर ने। बात चुभी सो अब भी याद है (इसलिए सबसे कहता हूं कि चापलूसी का इतिहास नहीं लिखा जाएगा, ब्लॉग पर ले टिप्पणी - दे टिप्पणी मत करो)। उन्होंने न जाने किस संदर्भ में कहा था कि - "हिंदी का साहित्य पाठकों से आजाद है।" यानी पाठक किसी रचना के बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता न हिंदी के साहित्यकार को है, न प्रकाशक को।
हिंदी के ज्यादातर महान साहित्य का प्रिंट ऑर्डर पांच सौ (या ज्यादा से ज्यादा हजार का) होता है। किताबें हार्ड बाउंड छपती हैं। कीमत ऊंची रखी जाती है क्योंकि उन्हें आम पाठक को तो बेचने का इरादा ही नहीं होता है। प्रकाशन जगत से जुड़े मित्रों की सूचनाओं के आधार पर 500 किताबें कुछ इस तरह खपती हैं - 100 जाती हैं समीक्षकों को। समीक्षक तारीफ में जोई सोई कछु गा देते हैं। उसके बाद 50 से 100 कॉपी लेखक को मेहनताने के तौर पर मिलती है। बाकी साढ़े तीन सौ में से ज्यादातर को हर प्रकाशक अपने संपर्कों और ताल तिकड़म के हिसाब से सरकारी लाइब्रेरी में खपा देता है। वहां कई बार किताबों के पैकेट खुलते तक नहीं है। या फिर किसी रैक में किताबों को पाठक के इंतजार धूल खाते रहना होता है।
ज्यादातर मामलों में इसी तरह हिंदी की एक महान साहित्यिक रचना का सफर पूरा होता है। इस पर चमत्कार ये कि ऐसे साहित्कारों को रैकेट के जरिए पुरस्कार भी मिल जाते हैं। हिंदी सम्मेलनों के लिए विदेश यात्रा का मौका भी। हिंदी सेवा का पुण्य लाभ बोनस में मिलता है। जनवादी और प्रगतिशील लेखक इस मामले में संघी लेखकों से कोसों आगे हैं।
कई किताबों को छापने के लिए प्रकाशक लेखक को पैसे देते नहीं, उनसे पैसे लेते हैं। कई बार ये पैसा इस गारंटी के रूप में होता है कि लेखक किताबें बिकवाने की गारंटी लेगा। इसलिए अफसरों के कविता संग्रह आसानी से छप और खप जाते हैं।
हिंदी साहित्य के मुकाबले ब्लॉग की दुनिया में ज्यादा ट्रांसपेरेंसी है। ब्लॉगर्स के गैंग नहीं हैं। गैंग बनाने की कोशिशें तो हो रही हैं, लेकिन गैंग बनाने वाले चारो खान चित होकर गिर रहे हैं। साहित्य की दुनिया में गंदगी ज्यादा है। चाटुकारिता ही चाटुकारिता है। किसी मठ में सिर झुकाए बिना जम पाना मुश्किल है। ब्लॉग की दुनिया में ज्यादा लोकतंत्र है।
ब्लॉग ज्यादा कंटेप्ररी हैं। उनमें करेंसी है, तात्कालिकता है। साहित्य की तरह पोंगापंथ यहां कम है। ब्लॉग में जातिवाद, क्षेत्रवाद, रिश्तेदारवाद, प्रेयसीवाद आदि की गुंजाइश नहीं है। जबकि हिंदी साहित्य की, इन वादों के बगैर कल्पना भी नहीं की जा सकती।
मठाधीशी साहित्य के पाठक लगातार घटे हैं। याद है आपको कि हिंदी का आखिरी बेस्टसेलर कब आया था? हिंदी में अगर कोई किताब गलती से ज्यादा बिकने लगती है तो सारे समीक्षक और साहित्यकार मिलकर फौरन उसे पल्प करार देते हैं और लेखक को जाति-निकाला दे देते हैं। मुझे चांद चाहिए के साथ ये दुर्घटना हो चुकी है।
राधाकृष्ण प्रकाशन से छपी आर अनुराधा (रिजेक्टमाल की संस्थापक सदस्य) की किताब इंद्रधनुष के पीछे-पीछे - एक कैंसर विजेता की डायरी की दूसरी आवृति आ गई है और उसपर फिल्म भी बन गई है, लेकिन दिवंगत कमलेश्वर उन चंद साहित्यकारों में थे, जिन्होंने इसकी खुलकर प्रशंसा की। बाकी समीक्षक ऐसी रचनाओं पर एक अजीब सी चुप्पी साध लेते हैं।
इसके मुकाबले ब्लॉग के पाठकों की संख्या में तो विस्फोट होना है। अभी ये तेजी से बढ़ रही है। ब्रॉडबैंड के विस्तार और हिंदी में फोंट की समस्या के समाधान के बारे में जानकारी फैलने के साथ ही हिंदी ब्लॉग और भी बढ़ेगा।
ब्लॉग तकनीकी रूप से श्रेष्ठ है। हाइपर लिंक की सुविधा इसे विश्वसनीय बनाती है। संदर्भ देना ब्लॉग में आसान है।
ये मेरे फुटकर विचार है। आलोचना का स्वागत है। साधुवाद वाली टिप्पणी मैं लेता नहीं हूं और देता भी नहीं हूं। - दिलीप मंडल
Thursday, December 13, 2007
2008 में कैसी होगी ब्लॉगकारिता
हिन्दी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो
अभी ये लक्ष्य मुश्किल दिख सकता है। लेकिन टेक्नॉलॉजी जब आसान होती है तो उसे अपनाने वाले दिन दोगुना रात चौगुना बढ़ते हैं। मोबाइल फोन को देखिए। एफएम को देखिए। हिंदी ब्लॉगिंग फोंट की तकनीकी दिक्कतों से आजाद हो चुकी है। लेकिन इसकी खबर अभी दुनिया को नहीं हुई है। उसके बाद ब्लॉगिंग के क्षेत्र में एक बाढ़ आने वाली है।
हिंदी ब्ल़ॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो
जब तक ब्लॉग के लेखक ही ब्लॉग के पाठक बने रहेंगे, तब तक ये माध्यम विकसित नहीं हो पाएगा। इसलिए जरूरत इस बात की है कि ब्लॉग उपयोगी हों, सनसनीखेज हों, रोचक हों, थॉट प्रोवोकिंग हों। इसका सिलसिला शुरू हो गया है। लेकिन इंग्लिश और दूसरी कई भाषाओं के स्तर तक पहुंचने के लए हमें काफी लंबा सफर तय करना है। समय कम है, इसलिए तेज चलना होगा।
विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए
ब्लॉग तक पहुंचने के लिए एग्रीगेटर का रास्ता शुरुआती कदम के तौर पर जरूरी है। लेकिन विकास के दूसरे चरण में हर ब्लॉग को अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता बनानी होगी। यानी ऐसे पाठक बनाने होंगे, जो खास तरह के माल के लिए खास ब्लॉग तक पहुंचे। शास्त्री जे सी फिलिप इस बारे में लगातार काम की बातें बता रहे हैं। उन्हें गौर से पढ़ने की जरूरत है।
ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो
सहमति आम तौर पर एक अश्लील शब्द है। इसका ब्लॉग में जितना निषेध हो सके उतना बेहतर। चापलूसी हिंदी साहित्य के खून में समाई हुई है। ब्लॉग को इससे बचना ही होगा। वरना 500 प्रिंट ऑर्डर जैसे दुश्चक्र में हम फंस जाएंगे।
टिप्पणी के नाम पर चारण राग बंद हो
तुम मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी करते हो, बदले में मैं तुम्हारे ब्लॉग पर टिप्पणी करता हूं - इस टाइप का भांडपना और चारणपंथी बंद होनी चाहिए। महीने में कुछ सौ टिप्पणियों से किसी ब्लॉग का कोई भला नहीं होना है, ये बात कुछ मूढ़मगज लोगों को समझ में नहीं आती। आप मतलब का लिखिए या मतलब का माल परोसिए। बाकी ईश्वर, यानी पाठकों पर छोड़ दीजिए। ब्लॉग टिप्पणियों में साधुवाद युग का अंत हो।
ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो
लोकतांत्रिक होना ब्लॉग का स्वभाव है और उसकी ताकत भी। कुछ ब्लॉगर्स के गिरोह इसे अपनी मर्जी से चलाने की कोशिश करेंगे तो ये अपनी ऊर्जा खो देगा। वैसे तो ये मुमकिन भी नहीं है। कल को एक स्कूल का बच्चा भी अपने ब्लॉग पर सबसे अच्छा माल बेचकर पुराने बरगदों को उखाड़ सकता है। ब्लॉग में गैंग न बनें और गैंगवार न हो, ये स्वस्थ ब्लॉगकारिता के लिए जरूरी है।
ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो
ये निहायत लिजलिजी बात है। शहरी जीवन में अकेलेपन और अपने निरर्थक होने के एहसास को तोड़ने के दूसरे तरीके निकाले जाएं। ब्लॉग एक वर्चुअल मीडियम है। इसमें रियल के घालमेल से कैसे घपले हो रहे हैं, वो हम देख रहे हैं। समान रुचि वाले ब्लॉगर्स नेट से बाहर रियल दुनिया में एक दूसरे के संपर्क में रहें तो किसी को एतराज क्यों होना चाहिए। लेकिन ब्लॉगर्स होना अपने आप में सहमति या समानता का कोई बिंदु नहीं है। ब्लॉगर हैं, इसलिए मिलन करेंगे, ये चलने वाला भी नहीं है। आम तौर पर माइक्रोमाइनॉरिटी असुरक्षा बोध से ऐसे मिलन करती है। ब्लॉगर्स को इसकी जरूरत क्यों होनी चाहिए?
नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु
ये आने वाले साल में हो सकता है। साथ ही मोबाइल के जरिए सर्फिंग का रेट भी गिर सकता है। ऐसा होना देश में इंटरनेट के विकास के लिए जरूरी है। डेस्कटॉप और लैपटॉप के रेट कम होने चाहिए। रुपए की मजबूती का नुकसान हम रोजगार में कमी के रूप में उठा रहे हैं लेकिन रुपए की मजबूती से इंपोर्टेड माल जितना सस्ता होना चाहिए, उतना हुआ नहीं है। अगले साल तक हालात बदलने चाहिए।
नया साल मंगलमय हो!
देश को जल्लादों का उल्लासमंच बनाने में जुटे सभी लोगों का नाश हो!
हैपी ब्लॉगिंग!
-दिलीप मंडल
Wednesday, December 12, 2007
उदय प्रकाश - गिरिजेश संवाद
उदय जी,
एक बार आपसे मुलाकात में आपकी किसी कहानी की तारीफ की थी तो आपने कहा था- 'मैं मूलत: कवि हूं, मुझे कहानीकार मानना कुछ वैसा ही है कि कुम्हार कभी कपड़ा सिल दे और उसे दर्ज़ी समझ लिया जाए।'
मैं तो मूलत: आपकी कहानियों का मुरीद हूं, लेकिन आपकी कविताएं पढ़कर फैसला नहीं कर पाता कि आप कुम्हार बड़े हैं या दर्ज़ी।
December 6, 2007 8:55 PM
कुम्हार, दर्ज़ी, बढई, जुलाहा, मोची, लोहार, मेकेनिक (मिस्त्री),साफ़्ट्वेयर इन्जीनियर वगैरह सब के सब अपने-अपने माध्यम के कारीगर ही है। आप मुझे हिन्दी भाषा का एक गैर-ब्राह्मण, गैर-ठाकुर, गैर-कायस्थ, गैर-बनिया, गैर-दलित, गैर-मुसल्मान कारीगर ही समझिये- यानी 'लेखक'। साथ मे दिलीप मन्डल द्वारा भेजा गया 'स्टिन्ग आपरेशन' पढ लीजिये।
भाई, बहुत कठिन है किसी अग्यात-कुलशील कारीगर का 'देव-राजभाषा' हिन्दी का कवि, कथाकार, अध्यापक, पत्रकार या मीडियाकर्मी होना। हमारे जैसे वर्णाश्रम बहिस्क्रित लोग हिन्दी साहित्य के जे.जे.कोलोनी के कुम्हार या दर्जी या कारीगर ही है। गरीब-गुरबे और हाशिये के लोग ही यहा कपडा सिलाने आते है। जब एम.एन.सी. तक जातिवाद के 'राजरोग' से नही बची, तो क्या हिन्दी कविता, कहानी, अकदेमिकता, पत्रकारिता और विचारधाराये इससे बची रह सकती थी। असम्भव। यह सदियो पुरानी सच्चाई है।
जो इस जातिवाद के खिलाफ़ बोलेगा, वह या तो 'जातिवादी' ठहरा दिया जायेगा या 'साम्प्रदायिक'। ज़रा एक बार हिन्दी की कविता-कहानी ही नही, सभी अनुशासनो, चैनलो, अखबारो, सन्स्थानो, विभागो, लेखक सन्गठनो का स्टिन्ग आपरेशन कर के देखिये...आप पायेन्गे कि यहा हमारा कुछ भी होना कठिन है। इस देश और इस भाषा मे जन्म लिया है, तो जीवन तो गुज़ारना ही है। प्रार्थना और पीडा और शाप से भरा जीवन।
काश कभी इस देश की राजनीति और हमारी भाषा जातिवाद के इस कैन्सर से मुक्त हो!
शुभकामनाये !
Tuesday, December 11, 2007
नंदीग्राम से 60 साल पुराना एक गीत
तेभागा आंदोलन का नेतृत्व अविभाजित सीपीआई ने किया था। सीपीआई का बड़ा हिस्सा पश्चिम बंगाल में अब सीपीएम के नाम से जाना जाता है। ज्योति बसु भी उस समय सीपीआई में थे। अब वो सीपीएम में हैं। उस समय वो नंदीग्राम के किसानों के साथ थे और लाल सलाम बोलते थे। अब वो जय सालेम बोलते हैँ। नंदीग्राम में औरतों से अत्याचार तब जमींदारों ने किया था, आज सीपीएम के कैडर कर रहे हैं।
तेभागा आंदोलन के समय रचा गया ये गीत इप्टा के कलाकारों की आवाज में (इप्टा वालों अब कहां हो)। कंपोजिशन सलिल चौधुरी का है। और गीत का परिचय भी उन्होंने ही दिया है। इस गीत की ऊर्जा और प्रवाह में बहने के लिए तैयार हैं आप?
ये गीत मुझे अपने एक कंप्यूटर पर तो ठीक सुनाई दे रहा है। लेकिन दूसरे कंप्यूटर पर चेक करने पर फास्ट फॉरवर्ड सुनाई दे रहा है। कुछ समस्या तो है।
एक लिंक है उसके जरिए गाने तक पहुंचने की कोशिश कर सकते हैं
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Monday, December 10, 2007
सुकांत समग्र की तलाश है
उनका दूसरा परिचय ये है कि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य उनके भतीजे हैं। कल साहित्य अकादमी की सालाना पुस्तक सेल में उनका परिचय देने वाली जगन्नाथ चक्रवर्ती की एक किताब मिली है। लेकिन उसमें कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद है। मूल कविताएं चाहिए। वो कविताएं बुद्धदेव भट्टाचार्य और सीपीएम के दोस्तों को भेजनी है।
सुनिए सुकांत भट्टाचार्य की कविता रानार, हेमंत मुखोपाध्याय की आवाज में
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Saturday, December 8, 2007
सब कुछ सहेजने लायक नही होता
सहमति-असहमति अपनी जगह. इसमे दो राय नही कि अनुनाद सिंह ने अपनी बात प्रभावी अंदाज मे कही है. उनको बधाई.
मुझे लगता है उनकी इस प्रभावी प्रस्तुति के बाद अब इसमे किसी को संदेह नही रह गया होगा कि इतिहास मे, परम्पराओं मे और समकालीन समाज मे भी सब कुछ सहेज कर रखे जाने लायक नही होता. कुछ चीज़ें टूटने के लिए छोड़ देने लायक होती हैं तो कुछ सायास तोडे जाने लायक भी होती हैं.
इसीलिए बहस सिर्फ इसी बात पर केन्द्रित होनी चाहिए कि क्या तोडे जाने लायक है और क्या नही. आपका दृष्टिकोण बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप किस ज़मीन पर खडे होकर बहस कर रहे हैं. अगर बतौर हिन्दू या मुस्लिम चीजों को देखेंगे तो बहस का स्वरूप एक तरह का होगा, लेकिन अगर दलित के रूप मे सोचेंगे तो मुद्दों का स्वरूप बदल जायेगा.
इसी प्रकार लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि अन्य पहचानो पर आधारित दृष्टि समस्या को खास रूप दे देती है. इसीलिए शिवसेना को मुम्बई की सभी समस्याओं की जड़ मे परप्रान्तीय नज़र आते हैं, शहरों मे रोजगार के केन्द्र बनाते हुए गावों मे बेरोजगारी बढाने वाली नीति उसके लिए कोई मुद्दा नही बनती.
मुझे लगता है जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि से जुडी पहचान व्यक्ति की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जबकि भोजन, रोजगार आदि से जुडे मुद्दे उसकी बुनियादी ज़रूरतों से वास्ता रखते हैं. पहले ये ज़रूरतें हैं, तब इंसान का अस्तित्व है और तभी हैं भावनाओं से जुडी उसकी अलग-अलग पहचानों का द्वंद्व.
इसीलिए भारत जैसे देश मे (वैसे यह बात आज की तारीख मे हर देश के लिए उपयुक्त है) राजनीति भी वही ज्यादा उपयोगी है जो बुनियादी ज़रूरतों से जुडे मुद्दों पर केन्द्रित हो और बहस भी वही.
Friday, December 7, 2007
कारगिल में पाकिस्तानी बंकर, अंग्रेजों का राज, जातिवाद और बाबरी मस्जिद
दिलीप दा, आप अपने ही प्रथिस्थापनाओं और विचारों से लड़ते नजर आ रहे हैं। क्या हमारे बच्चों को दिखाने के लिये छूआछूत भी बचाकर रखी जानी चाहिये? आजकल आप जातिवाद को तोड़ने की मुहिम में लगे हुए हैं। मैं भी जातिवाद के कुछ गन्दे पहलुओं से घृणा करता हूँ। पर आपका लेख पढ़ने के बाद मेरे मन में शंका उठ रही है कि इसे समाप्त करके क्या हम अपने बच्चों को युगों-युगों से विद्यमान इस परम्परा को देखने से वंचित नहीं कर देंगे?
लेनिन की मृत्यु के बाद पीटर्सबर्ग का नाम बदलकर लेनिनग्रद क्यों कर दिया गया था? लेनिन के अनुयायियों को इतिहास की समझ नहीं थी क्या?
मैने एक रक्तवर्णी इतिहासकार की एक पुस्तक पढ़ी थी। आरम्भ ही वह कुछ इस 'सिद्धान्त' से करते हैं कि जब तक पुराना घर नहीं टूटेगा, नया घर कैसे बनेगा? क्या कामरेडों ने इस विचार का त्याग कर दिया है?
मेरा एक पुराना घर था, जर्जर हो गया था; कब गिर जाय इसका कोई ठिकाना नहीं था। मेरे पिताजी ने इसे गिरवाकर नया घर बनाया। मुझे उन्होने मेरे पुराने घर को देखने से वंचित कर दिया।
ये जो रोज-रोज "पूंजीवाद का नाश हो' का राग अलापा जाता है; क्या वह गलत नहीं है? हमारे बच्चों को पूंजीवाद को प्रत्यक्ष देखने का हक है या नहीं?
कारगिल में पाकिस्तानियों ने बंकर बना लिये थे। उन बंकरों को भी हमारे बच्चों को देखने का हक था। भारतीय सेना ने उन्हे तोड़कर बहुत गलत काम किया।
न्यूयार्क के वर्ड ट्रेड सेन्टर को भी देखने का हक था हमारे बच्चों को; लेकिन उसके पतन पर किसी भी रंग-वर्ण वाले कामरेड ने एक भी आंसू नहीं बहाया।
भारत में अंग्रेजों का साम्राज्य था; उसे भी बरकरार रखना चाहिये था। आजकल के बच्चे पूछ लेते हैं कि हमारे आने के पहले ही इसे क्यों हटा दिया गया।
पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिन्दू नामक प्राणि विलुप्त हो रही है। राही को कभी उस पर भी आंसू बहाते हुए दिखाइये।
रही बात हिन्दुओं द्वारा जैनों, बौद्धों आदि पर अत्याचार की, तो आप को याद दिला दूं कि महात्मा बुद्ध हिन्दुओं के दसावतारों में से हैं। इस पर बहुत बड़ा लेख लिखा जा सकता है। लेकिन कई विषयों का घालमेल करने से मेरे इस टिप्पणी की दिशा ही नष्ट होने का भय है। अस्तु इतना ही।
Srijan Shilpi said...
"ऐतिहासिक अन्याय को कहां-कहां खत्म करेंगे? हिसाब तो आदिवासी भी, जैन भी, बौद्ध भी और दलित और दूसरी अवर्ण जातियां और सभी जाति और धर्म की औरतें भी मांग सकती हैं। दे पाएंगे हिसाब? सोच लीजिए।"
सही सवाल है, जिसका सही उत्तर देने की हिम्मत और अक्ल यदि किसी पास हो तो बताए।
लेकिन दिलीप जी, इतिहास में जो अन्याय होते रहे हैं, उनके कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे सामूहिक मानस में कई प्रकार की ग्रंथियां बनती गई हैं, जिन्हें सुलझाया जाना बहुत जरूरी है। दिक्कत यह है कि उन ग्रंथियों-गाँठों को सुलझाये जाने की बजाय उन्हें पहले से अधिक जटिल बनाया जा रहा है। सत्ता और वर्चस्व के खेल के कारण हमारे सामूहिक मानसकी विषाक्तता बढ़ती जा रही है।सहनशीलता, धैर्य, अहिंसा और शांति का निरंतर होता लोप हमारे समाज के भविष्य के लिए खतरे की घंटी है।
एक बार स्वामी विवेकानन्द भी मुगल काल में तोड़े गए देवी के मंदिर के खंडहर को देखकर उबल पड़े थे और कसमसाहट में उन्होंने मन-ही-मन कहा कि "यदि उस वक्त मैं रहा होता तो जान की बाजी लगाकर भी उस मंदिर को तोड़ने से बचाने का प्रयास करता।" रात में सपने में काली माँ ने आकर उनसे पूछा, "मैं तुम्हारी रक्षा करती हूँ या तुम मेरी रक्षा करते हो? क्या मैं अपनी रक्षा खुद करने में समर्थ नहीं हूँ?"
बाद में, स्वामी विवेकानन्द को समझ में आया और इस बात को उन्होंने कहा भी कि मुगलों और अंग्रेजों की पराधीनता का दौर भारत के भावी स्वर्णिम उत्थान के लिए एक अनिवार्य चरण था।
भारत ने पराधीनता के दौर में जो खोया है, उसकी भरपाई इक्कीसवीं सदी में वह कर लेगा। लेकिन पराधीनता के भयावह दौर से गुजरे बगैर सामाजिक न्याय की दिशा में हम शायद एक कदम आगे नहीं बढ़ पाते।
यह हमारी पीढ़ी की जिम्मेदारी है कि हम पुराने जख्मों को भरने का काम करें और मिल-जुलकर देश को आगे बढ़ाएं। घाव कुरेदने से दर्द के अलावा और कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
vijayshankar said...
दिलीप जी,
इस टिप्पणी की आख़िरी पंक्तियों (...और अपने आस पास के बच्चों से भी पूछ लीजिए कि क्या वो देश के हजारों मंदिरों, मस्जिदों और दूसरे पूजा स्थलों को गिरा दिए जाने के पक्ष में है), में आपने थोड़ी ढिलाई बरती है. जिस सोच पर आपने टिप्पणी की है, वह बच्चों से उनका बचपन छीनकर अपनी-अपनी किस्म की नफ़रत के पाले में कर लेती है. उनका बहुत बड़ा गणित है भविष्य का. ...बच्चों से भी पूछेंगे तो कौन जाने क्या जवाब मिले. अपने हित के बिम्ब-प्रतीक विधान बचपन से भरने लगते हैं. अब तो इनकी ऐसी पूरी फसल तैयार है जो देश के कई महत्वपूर्ण ओहदों पर कब्जा कर चुकी है. इससे इनको अपना एजेंडा लागू करना आजकल कितना आसान हो चला है. देख लीजिये, कैसे-कैसे कुतर्क करने में माहिर लोग हैं ये.
संजय बेंगाणी said...
भारत धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं के कारण बना हुआ है, और इसे बनाए रखने की सारी जिम्मेदारी केवल हिन्दुओं पर डाल देना मुझ गेर-हिन्दु को गलत लगती है. यह सामुहिक जिम्मेदारी है.
हिन्दुओं के दर्द पर भी कविताएं लिखना और आँसू बहाना सिखीये.
ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने के लिए क्या क्या तोड़ेंगे अनुनाद सिंह?
3 दिसंबर 1992 को अयोध्या में था। उन तीन गुंबदों को टूटने से पहले देखा था। उस इमारत के आर्किटेक्ट और शैली को लेकर कई सवाल थे। लेकिन अब उन्हें दोबारा नहीं देखा जा सकता। इतिहास के विद्यार्थी के रूप में इस इमारत के टूटने का अफसोस है। किसी ऐतिहासिक हिंदू या सिख या ईसाई या किसी भी मत से जुड़ी या न जुड़ी हुई इमारत के टूटने से भी उतना ही दुख होगा।
अगर उस ऐतिहासिक इमारत को बाबर ने किसी मंदिर को तोड़कर बनाया था तो भी हमें, हमारी संतानों को और आने वाली पीढ़ियों का हक बनता है था कि वो उन्हें देखें और अतीत के साथ अपने सूत्र तलाशें। उन्हें सोमनाथ भी देखने को मिलता और वो हजारों बौद्ध और जैन धर्मस्थल भी जिन्हें अलग अलग समय में अलग अलग मतावलंबियों ने तोड़ दिया तो अच्छा होता। इसके अधिकार से उन्हें और हमें अलग अलग मत वाले कट्टरपंथियों ने वंचित किया।
अफसोस है कि लोगों को और अगली पीढ़ियों को बामियान में बुद्ध मूल रूप में देखने को नहीं मिलेगा। स्वाट घाटी में गांधार शैली में बनी प्रतिमाएं भी शायद ही बच पाएंगी। इराक में अमेरिकियों ने दजला फरात की सभ्यता यानी सभ्यता की आदिभूमि में जो विध्वंश किया है, म्युजियम लूट लिए हैं, क्या उसे माफ किया जा सकता है? क्या उनका पाप सिर्फ इसलिए कम हो जाएगा कि वो ईसाई है और मुसलमानों को मार रहे है?
कट्टरपन, दूसरे से खुद को बड़ा समझने का अहंकार, इतिहास से बदला लेने की कोशिश - हर रंग में निंदनीय है। मुसलमानों ने किया तो शर्म आनी चाहिए और ईसाई या हिंदुओं ने या यहूदियों ने किया तो भी। ऐसी बातों पर गर्व करने वाले बीमार हैं।
जिस तरह महरौली की और कई और जगहों पर मुस्लिम शैली में बनी इमारतों के स्तंभों पर हिंदू देवी-देवता नजर आते हैं उसी तरह दक्षिण और मध्य भारत से लेकर हिमालय तक में सैकडो़ हिंदू मंदिरों के स्तंभों से लेकर फर्श और सीढ़ियों पर मुझे जैन और बौद्ध प्रतीक दिखे हैं। आपको भी दिखेंगे। तो क्या उन सबको तोड़ दिया जाए? फिर तो इस देश में बहुत कुछ तोड़ना पड़ेगा। धर्मस्थलों की इस तरह की ऑडिटिंग करा पाएंगे अनुनाद सिंह? म्युजियमों में तो हाहाकर मच जाएगा।
ऐतिहासिक अन्याय को कहां कहां खत्म करेंगे? हिसाब तो आदवासी भी, जैन भी, बौद्ध भी और दलित और दूसरी अवर्ण जातियां और सभी जाति और धर्म की औरतें भी मांग सकती हैं। दे पाएंगे हिसाब? सोच लीजिए। और अपने आस पास के बच्चों से भी पूछ लीजिए कि क्या वो देश के हजारों मंदिरों, मस्जिदों और दूसरे पूजा स्थलों को गिरा दिए जाने के पक्ष में है। -दिलीप मंडल
Thursday, December 6, 2007
शहरीकरण, अंग्रेजी शिक्षा और अंतर्जातीय विवाह
ब्राउन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री कैवन मुंशी और येल यूनिवर्सिटी के मार्क रोजेंविग ने पिछले दो दशक में मुंबई के दादर इलाके में 10 इंग्लिश मीडियम और 18 मराठी मीडियम सेकेंडरी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र और छात्राओं की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि, स्कूल के रिजल्ट, पासआउट होने के बाद उनके रोजगार के पैटर्न और उनकी स्कूलोत्तर सामाजिक जिंदगी का अध्य्यन किया। ये शोध द अमेरिकन इकॉनमिक रिव्यू में छपा है। हार्वर्ड यूनवर्सिटी की साइट से आप इस पीडीएफ फाइल को डाउनलोड करके पूरा शोध पढ़ सकते हैं। शोध 59 पेज में छपा है। भारतीय समाज में बदलाव के बारे में नजरिया बनाने में इस शोध से मदद मिलेगी।
शोधकर्ताओं को पासआउट छात्रों में शादी की 792 केस स्टडी मिली। उनमें से 11.8 फीसदी ने इंटरकास्ट मैरिज की। जबकि उनके माता पिताओं में से सिर्फ 3.6 फीसदी ने ही जाति तोड़कर शादी की थी। ये बदलाव मुंबई शहर में एक पीढ़ी में आ गया। महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि इंग्लिश स्कूल से पढ़कर निकलने वालों में 31.6 फीसदी ने इंटरकास्ट मैरिज की। जबकि मराठी स्कूल के पासआउट में इंटरकास्ट मैरिज का प्रतिशत 9.7 फीसदी है। इंग्लिश स्कूलों में पढ़ने वालों में से आधे से थोड़े ही कम यानी 41 फीसदी नौकरी के लिए महाराष्ट्र से बाहर चले गए। जबक मराठी स्कूलों में पढ़ने वालों में 11 फीसदी ही राज्य के बाहर नौकरी करते हैं। इंग्लिश स्कूल में पढ़ने वालों में ज्यादातर के हिस्से आए ह्वाइट कॉलर जॉब जबकि मेहनत मजदूरी के काम मराठी स्कूल के छात्रों को ज्यादातर मिले। इंग्लश स्कूल में पास परसेंटेज 90 फीसदी से ज्यादा रहा जबकि मराठी स्कूलों में 50 फीसदी से कुछ ही ज्यादा।
शोध का एक और महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि स्कूल से बेहतर शिक्षा प्राप्त करने में लड़कियों ने लड़कों को पीछे छोड़ दिया है। दादर के इलाके में ये पाया गया कि लड़कों को जल्द रोजगार में डाल देने की प्रवृत्ति है। इसका फायदा प्रकारांतर में लड़कियों को मिल रहा है। शोध का निष्कर्ष है कि इंग्लिश शिक्षा लोगों को परंपरागत पेशे से मुक्त कर रही है और साथ ही जाति के बंधन भी इसकी वजह से टूट रहे हैं। शोध की अंतिम पंक्ति है- आधुनिकीकरण की ताकतें उस व्यवस्था को आखिरकार तोड़ सकती हैं जो हजारों साल से जड़ जमाए हुए है।
इस बारे में मैं अपने शिक्षक बालमुकुंद के एक लेख आप तक पहुंचा रहा हूँ। बालमुकुंद जी मौजूदा समय में सबसे धारधार लेखन करने वालों में गिने जाते हैं। मीडिया पर उनके मार्गदर्शन में किए गए कई शोध बहुचर्चित रहे हैं। उनकी किताब शैलीपुस्तिका हिंदी पत्रकारिता की पहली स्टाइल बुक है। वो टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज में कोर्स डायरेक्टर रह चुके हैं। उनके पढ़ाए कई सौ छात्र विभिन्न पत्रकारिता संस्थानों में काम कर रहे हैं। लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। -दिलीप मंडल
Tuesday, December 4, 2007
'दुबेजी की लैट्रिन' से 'नच ले' के मोची तक
क्या सचमुच यह सिर्फ संयोग है कि 'आजा नच ले' विवाद पर शुरूआती चुप्पी के बाद जब सफ़ाई देना जरूरी लगा तो गीतकार पीयूष मिश्र ही नहीं, सेंसर बोर्ड की चेयर परसन शर्मिला टैगोर तक ने यही स्पष्टीकरण दिया कि मोची और सोनार से मतलब जाति नही पेशा था? हम इस बहस मे नही जायेंगे कि फिल्म के निर्देशक अनिल मेहता और गीतकार पीयूष मिश्र से शर्मिला टैगोर की भी मिलीभगत है या नही और सबका स्पष्टीकरण एक जैसा क्यों और कैसे है? एक जैसा स्पष्टीकरण संयोग हो सकता है. अंगरेजी मे ऐसे संयोगों को महान मस्तिष्क और मूढ़ मगज दोनों से जोड़ने वाली कहावतें मौजूद हैं. इसीलिए सुधी पाठक अपनी सोच और सुविधा के मुताबिक मनपसंद कहावत खुद चुन सकते हैं.
यहाँ विचारणीय बिंदु यह है कि आखिर सभी सम्बद्ध पक्षों को बचाव का रास्ता यही क्यों लगा कि 'हमने जाति का नही पेशे का जिक्र किया था?'
गीत की पंक्ति ' ये मोहल्ले मे कैसी मारामार है, समझे मोची भी खुद को सोनार है' अपने आप मे यह स्पष्ट नही करती कि इसे पेशे के अर्थ मे लिया जाना है. विभिन्न क्षेत्रों से जो आपत्तियां आयीं वे इन्हें जातिवादी अभिव्यक्ति मान कर ही की गयीं. पिछले सौ-पचास वर्षों मे देश मे खास कर पिछड़ी जातियों मे जो जातीय चेतना फ़ैली है उसका एक अच्छा असर तो यह है ही कि अमूमन अब ऐसी सार्वजनिक टिप्पणियाँ कर आप बगैर जवाबी वार झेले नही निकल सकते. हालांकि अनेक ऐसे मौके आते हैं जब ऐसी अपमानजनक टिप्पणियाँ 'जान बूझ कर' नही की गई होती हैं. वे 'सहज विचार प्रक्रिया' का परिणाम होती हैं.
ऐसे ही सहज पूर्वाग्रह युक्त एक कलम से निकली ये पंक्तियाँ एक के बाद एक तमाम बाधाओं को सहज ही पार करती चली गयीं. अब इसका क्या किया जाये कि यह कलम एक मिश्र की थी तो उसे देखने वाली निर्देशकीय नज़र एक मेहता की. इन सब के ऊपर सेंसर बोर्ड के शिखर पर बैठा व्यक्तित्व तो दो-दो धर्मों की सवर्ण परम्परा से युक्त था. ऐसे मे इन पंक्तियों पर दलितों की प्रतिक्रिया का पूर्वाभास इन्हें न हो पाना 'सहज' ही कहलायेगा.
मगर, इस 'सहज स्वाभाविक' स्थिति पर दलितों ने ऐसी कड़ी प्रतिक्रिया दी जिसे सहजता से स्वीकार करना मुश्किल था. आखिर फिल्म पर प्रतिबन्ध लग जाये तो किसी भी बात का क्या फायदा? सारी बातों की अन्तिम सार्थकता तो इसी मे थी कि फिल्म हिट हो जाये! सो अविलम्ब माफ़ी मांगने की मुहिम शुरू हो गई. जल्दबाजी मे क्या तर्क लाया जाये? यही सूझा कि जाति नहीं पेशे की बात की गयी थी.
आखिर समता मूलक दृष्टि से तो कुछ लेना-देना है नही! फिर यह कैसे सूझे कि जाति के आधार पर कहें या वर्ग यानी पेशे के आधार पर - भेदभाव इंसान को छोटा करते हैं. मकसद तो फिल्म को विवादों के भंवर से सुरक्षित निकालना भर था. वह मकसद पूरा हुआ क्योंकि देश मे जातीय चेतना तो फिर भी थोडी-बहुत विकसित हुयी है, वर्गीय चेतना आरंभिक अवस्था मे ही है. ज्यादा सटीकता से बात करें तो सेलेक्ट समूह (यानी वे जो अधिकतम संभव लाभ प्राप्त करने के लिए दूसरों का श्रम खरीदते हैं) मे चेतना की कमी भले न हो रिजेक्ट समूह (यानी वे जो अपनी आजीविका के लिए अपना श्रम बेचने को मजबूर होते हैं) मे इस चेतना का घोर अभाव है.
गौर करने की बात है कि मोहल्ला और रिजेक्ट माल पर भी जो बहस आजकल जोरदार ढंग से चल रही है (संदर्भ : दुबे जी लैट्रिन साफ कर दीजिये) उसमे जातीय चेतना के धूमिल पड़ने की बात तो रेखांकित हो रही है, लेकिन वर्गीय चेतना का उल्लेख भी नहीं. क्या यह भी कोई संकेत है?
बंदरिया अपने मरे बच्चे को सड़ जाने तक सीने से चिपटाए रखती है
pooja prasad said...
दुबे जी सुलभ मे काम कर रहे हैं क्योंकि ये उनकी आर्थिक ज़रूरत है, भले ही इस बात उन्हें कोफ्त न होती हो, वे सामान्य रहते हों. मगर गौर ये भी करें की जनेऊ धारी वे अब भी है (बात यहाँ सिर्फ परम्पराओं की नही है, उन प्रतीकों को चिपटाए रखने और उन पर मान करने की है जो उन्हें सुनहरे अतीत की तरह प्यारा है).
मुझे पूजा प्रसाद की इस बात में दम लगता है कि जाति के संस्कार आसानी से जाने वाले नहीं हैं। लेकिन मेरा निवेदन सिर्फ इतना है कि विचार को अगर आप भावजगत से उत्पन्न अमूर्त चीज नहीं मानते हैं, तो जाति को आप अविनाशी नहीं कहेंगे। विचार अगर वस्तु-सापेक्ष है तो जाति के अनश्वर-अव्यय होने की उम्मीद पाले लोगों को निराशा होगी।
वर्ण व्यवस्था भारतीय संदर्भ में कबिलाई समाज से सामंती उत्पादन प्रणाली में संक्रमण के साथ अस्तित्व में आयी। इसलिए इसे उत्तरवैदिक परंपरा का मानते हैं। वेदों में जाति या वर्ण विभाजन का उल्लेख नहीं है। जाति को हम आप जिन अर्थों में जानते हैं उसका मूल पाठ उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथों और विशेष रूप में गीता में मिलेगा। जाति की कभी सकारात्मक भूमिका भी रही होगी। पशुपालन और कृषि के सामंती प्रोडक्शन सिस्टम में कर्मविभाजन की ये विधि कारगर रही होगी।
लेकिन अब पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के प्रभावी होने से दौर में सामंती विचार परंपरा के लिए अपना अस्तित्व बचाए रख पाना आसान नहीं होगा। आप ये देख सकते हैं देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 25 फीसदी से भी कम रह गया है। ऐसे में उत्पादन प्रक्रिया में 25 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाली उत्पादन व्यवस्था, विचार जगत में बड़ा हिस्सा कब्जा करके नहीं रख सकती। जाति को अब खत्म होना ही होगा। इसे बचाए रखने के लिए टाइम मशीन में बैठकर पीछे जाना होगा।
वस्तु का विचार से संबंध (और वस्तुगत आधार के बदलने पर विचारों के अंत) को आप शहरी संदर्भ में छुआछूत के अंत के रूप में देख सकते हैं। छुआछूत शहरी भारत में इसलिए खत्म नहीं हुआ कि गांधी जी ऐसा चाहते थे। जब देश में कल कारखानों का दौर शुरू हुआ, तो उसके साथ सामुहिक तरीके से काम करने, भोजन करने से लेकर साथ यात्रा करने तक की जरूरत आई। ऐसी स्थितियों में छुआछूत का पालन करना असंभव था। अब मुंबई की लोकल ट्रेन में अगर कोई चाहे भी तो छुआछूत के नियमों का पालन कैसे करे? इसी तरह जाति भी खत्म होगी। लेकिन किसी की सदिच्छा से नहीं। न किसी के बचाने से ये बचेगी। जाति इसलिए खत्म होगी क्योंकि जाति की इमारत जिस जमीन (सामंती उत्पादन संबंध) पर खडी़ थी वो खिसक रही है।
जाति के खत्म होने पर उसके अवशेष शायद जल्द खत्म न हों। इवोल्यूशन के बारे में एक थ्योरी ये रही है कि बंदर से आदमी बनने की प्रक्रिया में पूंछ तो झड़ गई लेकिन स्पाइन के अंत में उससे अवशेष रह गए। वैसा ही भारतीय संदर्भ में जाति का हाल है। तो पूजा जी, इस बात से परेशान न हों कि दुबे जी जीवका के लिए पब्लिट टॉयलेट तो साफ करते हैं, लेकिन जनेऊ से लिपटे अपने संस्कार को उसी तरह सीने से लगाए रहते हैं जैसे कि बंदरिया अपने मरे बच्चे को सड़ जाने तक सीने से चिपटाए रखती है। ये पूंछ भी जल्द ही झड़ जाएगी। - दिलीप मंडल
Monday, December 3, 2007
पब्लिक टॉयलेट की सफाई करते पंडित जी की बात से मिहिरभोज को जातिवाद की बदबू आती है?
कब हम मनुष्य को जातियों में बांटना बंद करेंगे,इस तरह के शोध परक लेख निश्चित ही जातिवाद की खाई को और मजबूत करेंगे
-क्या सचमुच! तो फिर ऐसे "शोधपरक" लेख न लिखे जाएं। अव्वल तो इस लेख में कोई शोध नहीं है। चंद ऑब्जर्वेशन हैं और समय की आहट को पहचानने की कोशिश की है। इस लेख में जिस निष्कर्षों के आसपास पहुंचने की कोशिश की गई है, उसके लिए निर्णायक ऐतिहासिक और समसामयिक साक्ष्य नहीं हैं। इस बारे में समाजशास्त्रीय शोधकार्य की काफी जरूरत है। ऐसे शोध हो भी रहे हैं। ऐसे शोध अलग अलग नतीजों तक पहुंच रहे हैं। कहीं तो जाति व्यवस्था के कमजोर पड़ने के संकेत दिख रहे हैं तो तो कहीं बदलाव के साथ जाति व्यवस्था एकाकार होकर अपने सारतत्व को बचा रही है तो कहीं जाति का बदलते समाज से सीधा टकराव हो रहा है।
मिसाल के तौर पर, एमएनसी कंपनियों में जॉब मार्केट और जाति-धर्म के रिश्तों पर दो अमेरिकी शोधकर्ताओं ने लंबा चौड़ा रिसर्च करके बताया है कि अगर आपके रेज्यूमे में मुस्लिम नाम है तो आपको इंटरव्यू या स्क्रीनिंग के लिए बुलाए जाने की संभावना हिंदू कैंडिडेट के मुकाबले 33 परसेंट के आसपास है। और दलित उपनाम होने से भी आपका चांस एक तिहाई घट जाता है। ये शोध आप संडे इंडियन पत्रिका (12 नवंबर से 18 नवंबर) के अंक की कवर स्टोरी- CORPORATE SOCIAL IRRESPONSIBILITY में पढ़ सकते हैं।
इस लेख के लिए शोधकर्ताओं ने एमएनसी कंपनियों में 4,808 एप्लिकेशन के सेट अलग अलग जाति और धर्मसूचक नामों के साथ भेजे और उसे मिले रिस्पांस के आधार पर नतीजे निकाले। ये सैंपल साइज कितना बड़ा है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि देश के लोगों की न्यूक्लयर डील पर क्या राय है इसे बताने के लिए 250 एसएमएस को पर्याप्त सैंपल साइज मानकर नतीजे निकाल लिए जाते हैं। ऐसे शोध आपको निर्णायक तौर पर ऐसे निष्कर्ष निकालने से रोकता है कि बाजार आएगा और बाजार छाएगा तो जाति मिट ही जाएगी।
बहरहाल इवोल्यूशन के बारे में एक थ्योरी ये रही है कि बंदर से आदमी बनने की प्रक्रिया में पूंछ तो झड़ गई लेकिन स्पाइन के अंत में उससे अवशेष रह गए। वैसे ही भारतीय संदर्भ में जाति का हाल है। और अभी तो पूंछ भी बाकी है। लेकिन समाज के बदलने की, यानी बंदर की पूंछ झड़कर उसके आदमी बनने की प्रक्रिया के लक्षण आपको नजर आ रहे होंगे। हो सकता है कि आप अपने आसपास के एविडेंस के आधार पर ये कहने की हालत में हो कि मुझे तो ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है। अलग अलग राय की गुंजाइश ऐसे जटिल मामलों में हो ही सकती है। लेकिन मिहिरभोज जी, इसकी चर्चा करने से जातिवाद की खाई कैसे मजबूत होगी, ये समझ पाना मेरे लिए मुश्किल है।
बहरहाल, अक्टूबर महीने में जब मैं हंपी और बैंगलोर की घुमक्कड़ी कर रहा था तो हमें एक आईटी कंपनी में काम करने वाले ने बताया कि उनके यहां अरेंज्ड मैरिज अब कम ही होते हैं। ये एक बड़ा बदलाव है। कर्म और जाति का रिश्ता तो कमजोर हो ही रहा है (पंडित जी का पब्लिक टॉयलेट साफ करना और दलित का देश का राष्ट्रपति से लेकर चीफ जस्टिस और यूजीसी चेयरमैन बनना इसका प्रमाण माना जा सकता है), साथ ही शादी के मामले में रक्त शुद्धता की अवधारणा भी विरल हो गई तो वर्णाश्रम व्यवस्था का सार तत्व क्या बचेगा?
क्या जाति व्यवस्था इस बदलाव को झेल पाएगी। ये अनुत्तरित सवाल हैं। ठीक उसी तरह कि क्या सामंती उत्पादन संबंध के क्षीण होने, बाजार के सर्वव्यापी होने और शहरीकरण की प्रक्रिया के तेज होने के दौर में जन्मना कर्म विभाजन की वर्ण परंपरा इसी रूप में बच पाएगी? इस विषय पर तीखी बहस की गुंजाइश है। अगर आप जाति व्यवस्था में स्टेकहोल्डर नहीं हैं तो इस बहस से आपको भयभीत नहीं होना चाहिए। और अगर आप स्टेकहोल्डर हैं, तो भी आंखें खुली रखने में कोई बुराई नहीं है। -दिलीप मंडल
Sunday, December 2, 2007
सुलभ शौचालय साफ करते पंडित जी। क्या ये जातिवाद की आखिरी हिचकियां हैं!
"दुबे जी, जरा बीच वाला लैट्रिन साफ कर दीजिए!" सुलभ शौचालय के सुपरवाइजर की ये आवाज अचानक कानों से टकराई तो एक झटका सा लगा। फिर दिखे एक दुबले-पतले से दुबे जी। बनियान से झांकता जनेऊ और घुटने तक चढ़ा पजामा। हाथों में वाइपर लिए आए, सहजता से अपना काम करके चले गए। न कोई झिझक न कोई अलग होने का एहसास। उनके अलग होने का एहसास सिर्फ इस बात से हुआ कि सुपरवाइजर किसी और स्वीपर को जी कहकर नहीं बुलाता। उन्हें देखकर एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि वो कोई ऐसा काम कर रहे हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए। अगर आप महानगरों में हैं तो आपको दुबे जी , पांडे जी या ऐसे ही कोई और जी नामधारी स्वीपर किसी एनडीएमसी, किसी सुलभ शौचालय , किसी बीएमसी टॉयलेट में ड्यूटी पर तैनात मिल जाएंगे।
आउटलुक ने कुछ महीने पहले जब सुलभ शौचालय में सफाई करते एक जनेऊधारी ब्राह्मण की तस्वीर छापी थी, तब भी लोग चौंके थे। लेकिन अगर आप अपने आस पास नजर दौड़ाएंगे तो सेवा के काम में लगे ब्राह्मण या दूसरी सवर्ण जातियों के लोग आपको आसानी से दिख जाएंगे। विजिटिंग प्रोफेसर बनकर पेंसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी गए अपने मित्र और नए बदलते समय को लगातार परख रहे चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने शहरी समाज में आ रहे बदलाव के अध्ययन के लिए अपने अपार्टमेंट के पास बने गाजियाबाद के ईडीएम मॉल को केस स्टडी बनाया और उन्हें रोचक फैक्ट्स मिले।
वहां उन्होंने पाया कि हाउसकीपिंग का काम करने वालों में दलित जातियों के युवकों से ज्यादा सवर्ण युवक हैं। फर्श की सफाई से लेकर टॉयलेट साफ करने जैसे काम करने जैसे दलितों के समझे जाने वाले काम करने में अब किसी जाति विशेष के लोगों को ही तलाशने की कोशिश निरर्थक है। मैक्डॉनल्ड जैसे रेस्टोरेट में जूठे प्लेट उठाने से लेकर काउंटर पर बैठने वालों का रोल आपस में बदलता रहता है और इस काम में भी सवर्ण युवक ज्यादा मिले। चंद्रभान जी ने अपनी उस केस स्टडी के बारे में नवभारत टाइम्स में पिछले दिनों लिखा था और आगे भी वो इस विषय पर काम करेंगे।
वैसे भी फ्लाइट के दौरान आपकी जूठी प्लेट उठाने से लेकर वोमिटिंग साफ करने तक का काम करने वाली एयर होस्टेस और फ्लाइट स्टिवर्ड के जॉब में तो दलित कम ही हैं। मैंने खुद अपने शहर बोकारो स्टील सिटी में स्वीपर कॉलोनी में पांडे और मिश्र जी के क्वार्टर देखे हैं। पंद्रह से बीस हजार की तनख्वाह और पक्की नौकरी के लिए बोकारो जैसे शहर में जाति और कर्म के बंधन को ढीला होते हुए मैंने देखा। वैसा ही कुछ ज्यादा असरदार रूप में दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में नजर आ रहा है।
देश में सबसे तेजी से बढ़ते सर्विस सेक्टर को अगर आप वो क्षेत्र मानें जहां शास्त्रों के मुताबिक सिर्फ शूद्रों को काम करना चाहिए, तो यहां शूद्रेतर जातियां ही ज्यादा हैं। उसी तरह नए समय में अगर आप सिविल सर्विस को राज करने का कर्म मानें (जहां शास्त्रीय परंपरा के मुताबिक क्षत्रीय ही होने चाहिए) तो वहां 50 परसेंट से ज्यादा सीटों पर शूद्र (ओबीसी), अंत्यज (दलित) और आदिवासियों का कब्जा है। 49.5 परसेंट का तो रिजर्वेशन है और अब इन तबकों में वैसे कैंडिटेट की संख्या बढ़ रही है जो मेरिट के दम पर जनरल लिस्ट में जगह बना रहे हैं। आज आप ये नहीं कह सकते कि किसी कर्म पर किसी जाति का एकाधिकार है (स्पीपर के काम पर भी नहीं)!
शहरीकरण के साथ समाज में आ रहा ये बदलाव कितना गभीर है? क्या जाति व्यवस्था के निर्णायक तौर पर खत्म होने की ये शुरुआत है? इस बारे में निर्णायक तौर पर कुछ कहने का समय शायद अभी नहीं आया है। उत्पादन संबंधों में शहरीकरण के साथ बदलाव को लेकर किसी शक की गुंजाइश नहीं है। जाति व्यवस्था को अगर आप सामंती उत्पादन संबंधों के साथ जुड़ी अवधारणा मानते हैं तो आप इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि सामंतवादी उत्पादन संबंधों के कमजोर पड़ने के साथ जाति की जकड़न ढीली होती जाएगी।
हालांकि जाति ने पिछले दो हजार साल में बहुत मजबूत और झटकों को झेलने में सक्षम संस्था के रूप में खुद को स्थापिक किया है। इसलिए जाति खत्म भी होगी तो ये बहुत स्मूथ प्रक्रिया शायद ही साबित हो। जाति व्यवस्था के स्टेकहोल्डर्स इसे इतनी आसानी से खत्म नहीं होने देंगे। आरक्षण को लेकर सवर्ण समाज की जिस तरह की हिंसक प्रतिक्रिया (ताजा मिसाल असम है) हर बार सामने आती है, उस पर नजर रखिए। जैसे जैसे जातिवाद पर हमला तेज हो रहा है वैसे ही सवर्ण घृणा ज्यादा क्रूर रूप में सामने आ रही है। उसी तरह दलित उभार के विरोध में कई जगहों पर ओबीसी जातियां भी विभत्स तरीके से रिएक्ट कर रही हैं।
ऊपर लिखा लेख दरअसल प्रिंट के लिए लिखा गया है। इसका ठेका मुझे लगभग दो हफ्ता पहले मिला था। लेकिन आलस्य की वजह से लिखना टलता गया। वैसे इस विषय पर मेरा पहले का लिखा एक लेख आप नीचे लिखे लिंक को क्लिक करके देख सकते हैं।
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/925456.cms