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Friday, December 28, 2007

सलामत रहे दोस्ताना नताशा-अनुराधा का (भाग-2)

आर. अनुराधा

नताशा को आखिर बेटा हुआ जो अब कोई तीन साल का हो चला है। घर भर का दुलारा, दादा-दादी की आंखों का तारा। बहनें भी उसे गोद में उठाकर गौरव का अनुभव करती हैं। आखिर वह है भी एक बेशकीमती बच्चा, उन तीनों से कई दर्जा ऊपर। मैंने और नताशा ने तय किया कि इस बार बच्चों की छुट्टियों में हम वापस अपने शहर जाएंगे और पुरानी यादें ताजा करेंगे। अपने परिवारों को भी दिखाएंगे वो महुए के पेड़ जिनके कोटरों में हम छुपाया करते थे अपने नायाब, बेशकीमती पंचगुट्टे, वो बेर के पेड़ जिनसे पत्थर मार कर बेर तोड़ते हमने जाने कितनी बार डांट खाई जिस-तिस से, वो अमरूद के पेड़ जिनकी डालियों पर हम बंदर की तरह फुदकते और फिर फलों को अपने फ्रॉक की झोली में भर कर डालों के सहारे खपरैलों वाली ढलवां छत पर चढ़ कर उन्हें खाने में सर्दियों की दोपहरें बिताते, छोटे नाले पर बनी वो पुलिया जिस पर बैठ कर हम मच्छरों के बीच गर्मियों की पूरी शाम बिता देते बेबात की बातों पर बेवजह ठहाके लगाते हुए, घरों के वो बड़े-बड़े कंपाउंड जिनमें बादल वाले दिनों में चुन्नियां फहराते निर्लक्ष्य दौड़ा करते गिल्ली-डंडा, कंचे और पिट्टुल खेलते, वो झूले जिन पर आमने-सामने झूलते हम हर कुछ मिनट में एक-दूसरे को याद दिलाते कि हममें कुट्टी है फिर क्यों बात करें, और वह सब कुछ जो हमारे बचपन का हस्सा था, साझा था और हमारे दिलो-दिमाग पर गहरे दर्ज हो चुका है।

हमने फोन पर हुए कई संवादों में पुराने दिनों को याद किया और कई बार कल्पनाओं में साथ-साथ वहां पहुंच भी गए। लेकिन वहां जाने के कुछ दिन पहले उसने बताया कि उसके पति को उन्ही दिनों में कुछ जरूरी काम है इसलिए वे नहीं आ सकेंगे। इधर मेरे पति के भी साथ न आ पाने की स्थिति बन रही थी। तो मैंने प्रस्ताव किया कि हम ही चलें अपने बच्चों को लेकर बचपन की सैर पर। उसने घर में बात की और बताया कि दो बच्चों को उनकी नानी के पास छोड़ेगी और दो को साथ लेकर आएगी। बेहतर।

फिर अगले दिन उसका फोन आया तो वह फूट ही पड़ी -"मैं नहीं आ सकती। कोई आने नहीं दे रहा है। सबको लगता है मैं अकेले कैसे पहुंच पाऊंगी वहां और हम ' अकेले-अकेले' कैसे घूमेंगे एक 'नए' शहर में वो भी बच्चों को लेकर। इन लोगों ने तो मुझे साड़ी में लिपटी गुड़िया बना कर रख दिया है। इन्हें लगता है मैं अकेले कुछ नहीं कर सकती। अब मैं इन्हें कैसे समझाऊं मैं क्या थी यहां आने के पहले।" मैं सुन रही थी 20 साल पहले बॉटनी में एम एस सी, कंप्यूटर एप्लिकेशंस में डिप्लोमा लेने वाली की व्यथा और याद कर रही थी एक और नताशा को जो पेड़ों की कठिन डालों पर भी हम सबसे पहले चढ़ जाती, किसी ' बाहरी ताकत' से लड़ाई में हम डरपोकों के सामने कमर पर हाथ रखे तन कर खड़ी हो जाती मजबूत दीवार बनकर, कभी स्कार्ट-शर्ट पर छोटी सी टाई लगाती तो कभी ट्राउजर्स पहने बजाज स्कूटर दौड़ाती उसकी छोटी-मोटी मरम्मत करती और किसी टक्कर में दांत तुडाकर अगले दिन फिर तैयार रहती उसी स्कूटर की सवारी को, जबकि हम पिद्दी सी लूना (मोपेड) से ही संतुष्ट रहते, हर खेल में लड़कों से मुकाबले को तैयार रहती, स्कूल की दौड़ों में अपने हाउस को जितवाती...

2 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

कभी किसी बात को यों न ख़त्म करना चाहिए कि वह किसी लेख का हिस्सा न होकर भी किसी किस्से का हिस्सा लगे. हाँ किस्सा यों आगे बढ़ाना चाहिए कि आगे पढ़ने की उत्सुकता बरकरार रहे......

anuradha srivastav said...

जहाँ ज़िन्दगी के सबसे अच्छे पल बिताये हो वो शहर अजनबी कैसे हो सकता है। किंही खास मौकों पर अपने औरत होने पर अक्सर खीझी हूँ ।आज नताशा से भी सहानुभूति है।

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