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Thursday, December 27, 2007

टुकड़े जिंदगी के

आर अनुराधा


मेरी, आपकी और हमारे आस-पास बिखरी जिंदगियों के कुछ टुकड़ों को, जो ध्यान देने लायक लगे, शब्दों के जरिए सामने रखने की कोशिश। इसमें घटना और उसके संदर्भों को सीधे-सीधे बयान करने पर जोर होगा, टिप्पणी-विमर्श-मीमांसा का पक्ष आपके जिम्मे रहेगा। दरअसल प्रणव प्रियदर्शी (इस ब्लॉग के संस्थापक साथी) ने मुझे उकसाया महिला मुद्दों पर कुछ लिखने के लिए। तो मैंने अंगुली से पोहंचे तक पहुंचने के ख्वाब देख डाले।


सलामत रहे दोस्ताना नताशा-अनुराधा का (भाग-1)


नताशा मेरी बचपन की सहेली है। उस बचपन की जब हम दोस्ती का मतलब नहीं जानते थे। बस, खेलने के लिए हर शाम घर से निकलते, जम कर खेलते और संझा-बाती होते ही (हमें हिदायत थी- कालोनी में एक भी घर की या सड़क किनारे की बत्ती जली तो फौरन घर लौटो) अपने-अपने घरों की तरफ दौड़ जाते। मेरी उम्र थी तीन साल और नताशा की, इससे कोई आठ महीने ज्यादा। हम साथ बड़े हुए, शादियां और बच्चे भी हुए और सब कुछ ठीक-ठाक रहा।

मैं दिल्ली में सरकारी नौकरी में,एकल परवार में और वह उज्जैन में एक संयुक्त व्यापारी परिवार में। बीच-बीच में, दो-तीन साल में मुलाकातें होती रहीं और चिट्ठी-पत्री भी जारी रही। उसकी तीन बेटियां हुईं। फिर एक दिन बातों बातों में उसने जाहिर किया कि उसे परिवार को और बढ़ाने में कोई गुरेज नहीं, बेटे की चाह में, और दरअसल वह जल्द ही यह कर गुजरने की तैयारी में है। "घर में सब कहते हैं इतना बड़ा कारोबार है, उसे चलाने वाला भी तो कोई चाहिए न! और फिर इस बार उज्जैन के सिंहस्थ मेले में एक बाबाजी ने मेरा माथा देखकर ही बता दिया था कि मेरी चौथी संतान बेटा होगी। "

इतना पढ़-लिख कर भी घर-समाज के सामने सर झुकाए चलती जा रही है मेरी बाल सखी। क्या उसके परिवार को लगता है कि बड़ी होकर तीनों बेटियों में से एक भी इतनी काबिल न होगी कि उस कारोबार को संभाल सके, और इसलिए वह दुबली-पतली चपला एक बेटे की बारी आने तक बच्चे पैदा करते जाने और अपनी सेहत बिगाड़ते जाने को तैयार है?

मैं इस ख्याल से ही आतंकित हो उठी और वही सहज सवाल कर बैठी- "अगर फिर बेटी हुई तो?" "तो तुझे दे दूंगी, तू भी तो एक बेटी चाहती थी जबकि हुआ बेटा। " उसकी मासूमियत अब तक बरकरार है। "पता है, हमारे पड़ोस में ऐसा ही हुआ दो सहेलियों में। एक को लड़की हुई तो उसकी सहेली ने दस दिन बाद ही उसे गोद ले लिया। मेरी बेटी तेरे पास पलेगी दिल्ली में।"

मैंने हामी भर दी- "ठीक है, मैं तुम्हारी बेटी को जरूर अपने पास रखूंगी, बड़ा करूंगी लेकिन एक शर्त पर कि फिर तुम और बच्चों के बारे में नहीं सोचोगी।" उस वक्त हमारी बात-चीत वहीं खत्म हो गई।

3 comments:

Pooja Prasad said...

asi baatein ase hi bindooyon par aakar aksar khatam ho jaati hain..Anuradha ji aapka andaazen bayaan acha hai. bade dino baad aapko pada, or is niji vrataant ke maadhyam se jo kaha uskaa sandesh sochne par mazboor karta hai..
pooja prasad

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

आपके जवाब के बाद उनके साथ बातचीत सदा के लिए ख़त्म हो गयी या अब भी...वैसे आपने एक बड़ी समस्या को उसकी जड़ों में जाकर पकड़ने की कोशिश शुरू कर दी है. प्रणव ने एक काम तो अच्छा किया.

दिलीप मंडल said...

अनुराधाजी, भाग-2 का इंतजार है।

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