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Tuesday, March 11, 2008

वो कहते हैं हमसे...(भाग-1)

(यह लघुकथा मैंने 1987 में लिखी थी। आज के समय और माहौल में कितनी रेलेवेन्ट है, ये आप बताएं- आर. अनुराधा)

दृष्य एक: " नीलू बेटे, आज तुम्हारा नतीजा निकला है। अपना रोल नंबर तो लाना अखबार से मिलान कर लूं। फर्स्ट, सैकेंड, थर्ड- तीनों लड़कियां। भई वाह! लड़कियां तो लड़कों को हर मोर्चे पर मात दे रही हैं।"
" पापा मैं पत्रकारिता में प्रवेश लेना चाहती हूं।"
"अरे भई, एम एस सी करो, पी एच डी करो और ठाठ से कॉलेज में पढ़ाओ। पत्रकारों को बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ती है। यह तुम्हारे बस की बात नहीं। इसे तो लड़कों के लिए ही रहने दो।"
दृष्य दो: " नीलू, जरा दुकान से मेरी दवाएं तो ला दे। "
" भैया को भेज दो न मां, मैं अकेले नहीं जाना चाहती"
"आजकल तो औरतें मर्दों के सारे काम करती हैं, और तुझे अकेले बाजार तक जाने में हिचक हो रही है। चल उठ फटाफट। बहानों की जरूरत नहीं है। "
दृष्य तीन: "कहां जा रही हो? "
"यहीं, सरिता के घर तक। "
" भैया को साथ ले जाना, जमाना बहुत खराब है आजकल।"

1 comment:

Dipti said...

ये कहानी हमेशा प्रासंगिक रहेगी। ये एक ऐसी सोच है, जिससे माता-पिता जूझ रहे हैं और जिसे बेटियाँ झेल रही हैं। माँ-बाप को ये हक़ दैवीय शक्ति से प्राप्त हुआ है कि वो बेटियों की ज़िंदगी को रूल करें। लेकिन अब वो ये तय ही नहीं कर पा रहे हैं, कि बेटियों पर कहाँ तक लगाम कसे और कहाँ ढील दे। ये पूरी सोच दुखदायी है। लेकिन हर लड़की का अनुभव शायद ऐसा ही कुछ हो।
-दीप्ति।

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