आर. अनुराधा
नाना-नानी जब भी साथ घर से निकलते - हाट-बाजार, नाते- रिश्त्दार या अस्पताल। नाना आगे चलते जाते बिना एक बार भी पीछे देखे। नानी जैसे एक डोर में बंधी चलती जातीं उनके पीछे-पीछे। नाटी नानी चाहे सुनसान सड़क पर हों या भीड़ के बीच, सब कुछ परे हटाती, ठेलती जैसे बढ़ती जातीं उस भूरी 'चांद' का पीछा करते हुए। यह उनकी जिम्मेदारी होती कि तांगे में जुते घोड़े की तरह नजर जमाए रखें और 50 फीट आगे चल रहे तेज चाल नाना का अनुसरण करती जाएं। दाहिने-बाएं दुनिया होती है नानी को नहीं मालूम था। उन्हें मालूम थी तो बस वह बार-बार भीड़ में गुम होती-फिर मिलती चांद जो पूरे रास्ते एकमात्र लक्ष्य होती और एकमात्र सहारा भी। 40 साल से ज्यादा उस घर में रहीं वो लेकिन पास के बाजार से घर आने के रास्ता उन्हें कभी पता नहीं चला।
एक बार बाजार के किसी मोड़ पर नाना मुड़ गए और भीड़ में गुम हो गए। नानी सीधी सड़क चलती गईं। जब कुछ देर बाद लगा कि गायब हुई चांद तो दोबारा दिख ही नहीं रही है तो वे बौखला गईं, डर गईं। सूखे मुंह हर किसी से कहती रहीं- "मुझे घर जाना है। मुझे अपने घर जाना है। कोई पहुंचा दो।" उन्हें घर जाना नहीं आता था। कोई आधा घंटा वो उस गहरे समुद्र में फेफड़ा-भर सांस को छटपटाई होंगी। इधर नाना घर पहुंचे और मां को बोले- " देखो, तुम्हारी मां बाजार में ही कहीं रह गई। उसे इतना भी शऊर नहीं कि मेरे पीछे-पीछे आती रहे। जाओ उसे ढूंढ लाओ। " नाना की बताई जगह से काफी दूर, बाजार के परले सिरे पर बदहवास नानी को हैरान-परेशान मां ने पाया। एक-दूसरे को देखते ही दोनों कस कर गले मिलीं और फूट-फूट कर रो पड़ीं।
घर आने पर नानी को सांत्वना की जगह फिर एक झिड़की मिली मूर्ख, अज्ञानी होने की। उसके बाद से नानी ने बाजार जाना बंद कर दिया। घरेलू सामान, साड़ियां नाना खुद ला देते। और धीरे-धीरे नानी ने सामान मंगवाना भी छोड़ दिया। और लोग कहते हैं वो पागल हो गईं।
मां बड़ी हुईं और उनकी भी शादी हुई। शादी तक तो किसी को समझ में नहीं आया पर शादी के बाद मां भी सबको पागल लगतीं। एकदम नासमझ थीं वो दुनियादारी को लेकर। अपने पैर की मोच निसंकोच दादाजी को दिखातीं और उनसे आयुर्वेदिक तेल-मालिश करवातीं। देवरों से खूव खातिर करवातीं। दादी को लगता जरूर कोई जादू-टोना जानती है तभी ऐसे उजड्ड लड़के भी अपनी भाभी की हर बात झट मान लेते हैं। साइकिल पर उनके पीछे बैठ कर मेला देख आतीं। और फिर एक दिन पता चला उन्होंने साइकिल चलानी भी सीख ली है। दादी बहुत झल्लाईं। लाज-शर्म सब बेच खाई है क्या? दुनिया के सामने हमारी नाक कटा रही है। घर बैठ कर चुपचाप चूल्हा-चौका नहीं होता तुझसे? लेकिन ये नहीं हुआ उनसे, मतलब चुपचाप नहीं हुआ। घर पहुंचने वाली हिंदी अंगरेजी-हिंदी सब तरह की पत्रिकाएं पढ़तीं, यहां कर कि दादाजी की आयुर्वेद की किताबें भी।
बीस-इक्कीस की उम्र में वो अपने पति और सास-ससुर के साथ तिरुपति घूमने गईं। बस में पहाड़ी रास्ते पर लंबा सफर। उनके पेट में दर्द उठा जो बढ़ता ही गया। किसी ने ध्यान नहीं दिया, कोई उनके लिए नहीं रुका और उन्हें भी धर्मशाला में अकेले नहीं रुकने दिया गया। मंदिर के गेट से लंबी पैदल यात्रा, सब तरफ 'गोविंदा-गोविंदा ' का शोर , भीड़-भाड़, गर्मी, पसीने के बीच गर्भगृह के पास तक आते-आते मां को अचानक समझ में आया कि वह मां बनने वाली हैं। वो धम्म से वहीं किनारे बैठ गईं। दर्द असहनीय हो गया, शरीर सफेद और ठंडा पड़ने लगा, साड़ी भीगने लगी। दादी को समझ में आया तो वो दादाजी के कान में फुसफुसाईं। अब तो कोई वहां बैठने नहीं दे सकता था- अपना खून बहाती, तिरुपति बालाजी के मंदिर को अपवित्र करती उस महिला को। और उस हालत में बैठी मां दर्द की तड़प में दोहरी सी होकर लेट गईं। किसी ने कहा- पागल हुई है क्या?
तमाशा बन गया। उस हालत में कोई मदद करता, डॉक्टर बुलाता। इसके बजाए कहा गया - पवित्र मंदिर से निकलो फौरन, सफाई भी करनी पड़ेगी। उन्होंने उठने से साफ मना कर दिया। लेकिन पिताजी और एक अन्य पुरुष ने उन्हें बाजुओं के सहारे उठाया और जबर्दस्ती बाहर ले गए। कुछ देर सुस्ताने के बाद उठ कर चलना ही था। और मां के साथ जो हुआ वह भले ही उनके साथ पहली बार हुआ लेकिन थी तो आम बात ही।
मंदिर के मुख्य दरवाजे के बाहर रास्ते में मां को एक डॉक्टर के नाम का बोर्ड दिखा और वह सीधे अंदर चली गईं। दादी लाख कहती रहीं कि यह तो पुरुष डॉक्टर है, इसं कैसे दिखाएगी, और यह भी कि सफर में इतने पैसे खर्च करने की क्या जरूरत है। दो दिन बाद घर पहुंच ही जाएंगे, तब वहां दाई को दिखवा लेंगे। लेकिन मां ने किसी की नहां सुनी। वह डॉक्टर सहृदय निकला। उसने एक लेडी डॉक्टर को बुलवाया और बिना ज्यादा फीस लिए पूरा जरूरी इलाज किया।
घर वापसी पर कुछ दिन शांति से बीते। फिर एक दिन दादी को मां के पैरों की अंगुलियों से चांदी के बिछुए गायब मिले। ये तो शादीशुदा होने की निशानी हैं। ऐसे कैसे कोई इन्हें निकाल कर रख सकती है। लेकिन बड़ा सदमा तो सबको तब लगा जब मां ने इसका कारण बताया। वो अपने बिछुए सुनार को बेच आई थीं और मिले पैसे तिरुपति के उसी डॉक्टर के नाम मनीऑर्डर से भेज दिए। चिट्ठी में लिखा कि रुपए भेज रही हूं ताकि उन जैसी तकलीफ की मारी, पैसे से लाचार औरतों का इलाज जारी रखने में डॉक्टर को मदद मिले।
इसके बाद तो जिसने यह किस्सा सुना, एक ही बात कही- "पागल है ये "।
(यह लेख पहले चोखेर बाली पर दिया था। वहां मिली प्रतिक्रियाओं के लिए देखें यह लिंक)
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2 comments:
बहुत अच्छा संस्मरण!
नानी का पागलपन भी प्रोटेस्ट ही था - उन्होने बाजार जाना छोड़ दिया, फिर समान मंगवाना भी - मगर माँ का पागलपन ज्यादा आक्रामक, प्रत्यक्ष, चुनौतीपूर्ण और इसीलिए ज्यादा सार्थक प्रोटेस्ट था. आइये उम्मीद करें कि हम मे से अधिकाधिक लोग माँ के पागलपन को चुनें. अनुराधा, ज़िंदगी के ऐसे टुकड़े चुन कर हमे उनसे रु-ब-रु करने का काम जारी रखें. ये टुकड़े हमारी राह रोशन करते हैं.
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