नीचे लगे दोनों वीडियो को देखिए। दोनों यूट्यूब पर हैं। दोनों में एक प्रमुख किरदार बराक ओबामा हैं। अमेरिकी ब्लॉग जगत में इन दिनों बहस छिड़ी है कि क्लिंटन ने जो एड जारी किया है, उसमें ओबामा को क्या जानबूझकर ज्यादा काला दिखाया गया है। क्या ये मानवीय भूल है या जानबूझकर की गई शरारत या कोई साजिश?
ओबामा के चमड़े का रंग, उसके पिता का अश्वेत होना, नाम में हुसैन का होना, उनकी माता के चरित्र का पोस्टमार्टम - ये सब मिलकर एक पूरा कोलाज बनता है। क्या अमेरिका अपने नस्लवादी अतीत से पीछा छुड़ा पाया है?
क्या भारत के लिए इस चर्चा का कोई संदर्भ है। मायावती की राष्ट्रीय राजनीति में हैसियत बढ़ती है तो क्या वो ऐसे ही सवालों से रूबरू नहीं होंगी? मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने वाले सीताराम केसरी का किस्सा याद है आपको? और जगजीवन राम? अजित जोगी, शिबू सोरेन? तहलका कांड से बंगारू लक्ष्मण का राजनीति कैरियर खत्म हो गया, लेकिन जया जेटली-जॉर्ज फर्नांडिस तो फिर से नैतिकता की बात करने लगे हैं। वी पी सिंह और अर्जुन सिंह का मीडिया में विलेन बनना क्या अपने आप हो गया?
वाजपेयी के चरित्र की मीमांसा मीडिया में क्यों नहीं होती। नरसिंह राव का निजी जीवन भी निजी ही रह गया। सार्वजनिक जीवन जी रहे तमाम लोगों को निजी जीवन जीने की ऐसी ही खुली छूट क्यों नहीं मिलती। सुरेश राम का स्कैंडल उछालते समय क्या मीडिया के सामने ये सवाल नहीं था कि ये किसी का निजी मामला है। हवाला कांड में 40 से ज्यादा नेता फंसे लेकिन आडवाणी और शरद यादव का क्या एक तरह का मीडिया ट्रायल हुआ। प्रमोद महाजन जैसे नेता की कमीज उजली की उजली कैसे रह जाती है। लालू यादव जब तक सवर्ण न्यायपालिका और अफसरशाही के सामने दंडवत नहीं हो गए तब तक उनकी कैसी दुर्दशा होती रही?
मेरे पास किसी नतीजे तक पहुंचने के लिए न पूरे तथ्य हैं न तर्क। लेकिन ये बात मैं पक्के तौर पर जानता हूं कि देश में जो नेता सर्वाधिक भ्रष्ट हैं, उनकी छवि सबसे बुरी नहीं है। मीडिया में हर पाप एक तराजू पर नहीं तुलता। कहीं कुछ तो घपला है।
1 comment:
ओबामा के बहाने यह कहानी उस घपले की सारी परतें साफ-साफ दर्शा रहा है दिलीप जी। इसलिए इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है कि जैसे ही ये सवाल उठाए जाते हैं मीडिया और कुलश्रेष्ठों के बीच हाहाकार मच जाता है।
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