अविनाश की ताकत ये है कि आप उसके बनाए ब्लॉग पर जाकर उसे गाली दे सकते हैं, उसकी भर्त्सना कर सकते हैं और फिर भी उस ब्लॉग पर बने रह सकते हैं। ब्लॉग का लोकतंत्र अपने सबसे मौलिक रूप में जिस एक जगह नजर आता है, वो जगह अविनाश ने बनाई है। मोहल्ला भी ऐसा जिसमें एक दूसरे से 180 डिग्री की दिशा में सोचने वाले साथ साथ एक दूसरे को चाहते हुए भी और कोसते हुए भी रह सकते हैं। अविनाश के लिए असहमति अश्लील शब्द नहीं है।
शंकर की बारात सजाने का दम कम लोगों में होता है। अविनाश में है। उनका बनाया मोहल्ला ऐसा है जहां अक्सर कोई बेनामी आकर ऐसी हरकत कर देता है, जिसे शायद ही कोई और ब्लॉग मॉडरेटर बर्दाश्त करे। लेकिन अविनाश के बनाए हम सबके मोहल्ला में कमेंट मॉडरेशन नहीं है। बहुत ही अझेल हुआ तभी अविनाश कमेंट के साथ संपादकी दिखाते हैं। उन्हें ऐसा करते मैंने इतने दिनों में सिर्फ एक बार देखा है।
अविनाश ने जिन लोगों को ब्लॉगिंग के शुरुआती गुर सिखाए हैं, उनमें से कुछ आज उनके प्रशंसक हैं तो कुछ उनसे सहज मानवीय स्वभाव के तहत जलते-कुढ़ते हैं। अविनाश वनिला नहीं है। अविनाश के बारे में आपकी राय ये नहीं हो सकती कि - हैं कोई। आप उन्हें पसंद या नापसंद करने को मजबूर होते हैं। सामयिक विषयों पर उनकी प्रखर राय है। लेकिन उनकी राय से असहमत होकर भी जब आप मोहल्ला पर कुछ लिखते हैं तो अविनाश आपसे टकराते नहीं हैं, बल्कि आपके लिखे को सजाते हैं, उसमें से चर्चा के सूत्र निकालते हैं। ठीक उसी तरह जैसा कि किसी संपादक को करना चाहिए।
अविनाश दास नाम के आदमी को मैं जुलाई 2007 से पहले नहीं जानता था। मेरा बिहार/झारखंड पहले ही पीछे छूट गया था। फिर प्रिंट की पत्रकारिता से संपादकीय और फीचर पन्नों पर लेखन के अलावा ज्यादा रिश्ता नहीं रहा। टीवी में नौकरी करता हूं, पर इस दुनिया से भी कभी एकाकार नहीं हो पाया। इसलिए अविनाश को न जानना कुछ अस्वाभाविक भी नहीं है। अब तक मैं अविनाश से सिर्फ दो बार मिला हूं। एक बार राजकिशोर जी के निवास पर और दूसरी बार अशोक पांडे के अस्थायी निवास पर। दोनों बार कुछ मिनट के लिए। लेकिन संपादक के जो गुण मुझे अविनाश में दिखे हैं उससे मुझे थोड़ी जलन सी होती है। कई लोग मोहल्ला में अविनाश जैसे संपादक की वजह से ही लिखते हैं। दिलीप मंडल उनमें शामिल हैं।
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Tuesday, March 4, 2008
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9 comments:
बहुत सही कहा आपने.
एकदम सौ फीसद सहमत हूं । न कोई विषाद, न विभ्रम । सब कुछ सामान्य मानें ।
अलबत्ता मोहल्ले पर सदाशयी अंदाज़ में , बहस में शामिल होते हुए मैने जो कुछ लिखा उसके कई पहलुओं को नज़रअंदाज़ करते हुए जो नितांत गैरज़रूरी बातें कही गईं, वो सचमुच मुझे मोहल्ले से दूर रहने के संदेश जैसी थीं। तब न आप ने और न अविनाश जी ने उन बड़बोलों को समझाया और न ही मेरे उठाए मुद्दों जो कि मीडिया के प्रोफेशनलिज्म से जुडे थे , के संदर्भ में एक भी शब्द कहा।
किसी भी हालिया घटनाक्रम को मैं इतना महत्वपूर्ण नहीं मानता कि उसे लेकर मौहल्ले से जुड़ाव के बारे में पुनर्विचार करूं। मुझे व्यक्ति से और उसकी सोच से मतलब है। राय और नसीहत देने के लिए तो प्रभु ने मोबाइल दे ही रखा है:)
सही फरमाया आपने ,मगर अपुन तो गाँव गिराव मी पले बढे मनई हैं ,कस्बों ,मुहल्लों ,शहरों मे घुटन सी होती है .लेकिन यह तो नायाब मुहल्ला लगता है जहाँ खुल कर साँस ली जा सकती है -
सौ टके सही बात!
यार, अब मोहल्ले का पीआर भी मोहल्ले पर ही हुआ करेगा क्या?
जब इतनी झरपट खा के अजित वडनेरकर सहमत हैं तो मैं असहमत होने वाला कौन होता हूं . मोटे तौर पर सहमति है .
मैं २००४ से ब्लोगिँग कर रहा हूँ और इस मोहल्ले मे अक्सर ही आना होता है. अभी तक इस मोहल्ले मे कुछ भी अशोभनीय नही हुआ है और इसके लिए अविनाश जी बधाई के पात्र हैँ, हलाँकि गाली गलौज को अपना नियति मानते हुए कुछ लोगोँ ने मिल-कर कम्यूनिटी ब्लोग का अस्तित्व खतरे मे डाल दिया है.
आपसे इसी धीरज की उम्मीद थी। जिस हड़बड़ी में मोहल्ले का मूल्यांकन शुरू हुआ, उसके निहितार्थों को समझना बहुत आसान है। मनीषा जी अगर थोड़ा धीरज से काम लेतीं तो शायद एक सार्थक बहस हो सकती थी। कभी-कभी की कड़वाहट तात्कालिक प्रतिक्रिया हो सकती है। लेकिन इसमें मूल मुद्दे पीछे नहीं छूटने चाहिए। अफसोस इसी बात का है कि व्यापक महत्त्व के मुद्दों पर अक्सर निजी अहं को हावी होने दिया जाता है। इसमें वे लोग फायदे में रहते हैं जो प्रायोजित तरीके से यथास्थिति को बहाल रखने के लिए किसी भी स्तर की साजिश करने से नहीं हिचकते हैं।
jalan insan ki fitrat me hai..bahutere man me hi use dabaye rakhte hain aur man hi man khujali karte rahte hain..par ye aapka baddapan hai ki aapne apne man ki bat blog ke manch par rakha..sach me Dileep ji aap tarif ke kabil hain..Avinash ji ka philhal koi sani nahi hai...sach me ve blog ke daksh sampadak hain..
Saurabh K.Swatantra
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