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Tuesday, March 25, 2008

'अमेरिकी साम्राज्यवाद' बतर्ज 'इस्लामी आतंकवाद'

प्रणव प्रियदर्शी
'इस्लामी आतंकवाद' शब्द के प्रयोग पर सबसे तीखी आपत्ति अमूमन वामपंथी पार्टियाँ ही करती हैं. आपत्ति जायज भी है. यह प्रयोग जाने-अनजाने आतंकवाद और इसलाम को मिला देता है. संघ परिवार से जुडे लोग इसीलिए बार-बार इस प्रयोग को दोहराते हैं. संघ मानसिकता के ही ज्यादा कुशाग्र बुद्धि के लोग यह सवाल उठाते हैं कि हर मुसलमान आतंकवादी नही है, लेकिन हर आतंकवादी क्यों मुसलमान है? प्रकारांतर से इससे भी वही भाव स्थापित होता है कि इसलाम और आतंकवाद मे शायद सचमुच कोई संबंध है.

बहरहाल, 'इस्लामी आतंकवाद' को लेकर सतर्क रहने वाले वामपंथी दलों से जुडे नेता और बुद्धिजीवी ऐसे ही एक अन्य प्रयोग को लेकर न केवल उदासीन हैं बल्कि इस मामले मे करीब-करीब वैसी ही भूमिका निभा रहे हैं जैसी 'इस्लामी आतंकवाद' पर संघ परिवार के लोग निभाते हैं. वह शब्द है 'अमेरिकी साम्राज्यवाद.'

दो राय नही कि मौजूदा एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था मे अमेरिका सबसे बडे दादा के रूप मे उभरा है. इसीलिए मुख्य धारा की मीडिया उसे मुख्य खलनायक के रूप मे दुनिया भर मे पेश कर रही है. आश्चर्यजनक रूप से अधिकतर वामपंथी नेता और बुद्धिजीवी भी मुख्य धारा की मीडिया की इसी राय को मजबूती देते दिखते हैं. 'अमेरिकी साम्राज्यवाद' शब्द का बार-बार प्रयोग इसी धारणा की पुष्टि करता है. जरा गौर करें 'अमेरिकी साम्राज्यवाद' के मुकाबले फ्रांसीसी साम्राज्यवाद, ब्रितानी साम्राज्यवाद, रूसी साम्राज्यवाद, चीनी साम्राज्यवाद जैसे शब्दों के प्रयोग आपने कितनी बार देखे हैं.

अमेरिकी साम्राज्यवाद शब्द के बारम्बार प्रयोग के जरिये कई उद्देश्य साधे जा रहे हैं. आम लोगों की नज़र मे इससे अमेरिका सभी बुराइयों की जड़ के रूप उभरता है. आप पूछेंगे इसमे हर्ज क्या है? हर्ज अन्य किसी दृष्टि से नही. हर्ज सिर्फ यह है कि इससे वाम दलों के दृष्टिकोण मे ऐसा विकार आता है जो उन्हें निष्प्रभावी बनाता है.

आखिर भारत-अमेरिका परमाणु करार पर लेफ्ट की आपत्ति का मूल आधार क्या है? यही न कि इससे भारत अमेरिका का पिछलग्गू बन जायेगा या दूसरे शब्दों में भारत सामरिक तौर पर अमेरिका से जुड़ जायेगा?
सवाल है, वाम दल अमेरिका से भारत के जुडाव का विरोध आखिर क्यों करते हैं? वाम दलों के ही मुताबिक इसका कारण यह है कि अमेरिका सभी बुराइयों की जड़ है. आज जरूरत अमेरिका से जुड़ने की नही उससे जूझने की, उसे चुनौती देने की है. इसीलिए वाम दल चाहते हैं कि भारत अमेरिका से न जुडे बल्कि रूस और चीन के साथ मिल कर एक अमेरिका विरोधी धुरी बनाने की पहल करे.
यानी कांग्रेस और अन्य वाम विरोधी दलों का यह आरोप बेबुनियाद नही कि अगर ऐसा ही परमाणु समझौता चीन के साथ हो रहा होता तो वाम दल उसका प्रबल समर्थन कर रहे होते.
चीन के पक्ष मे झुकने के आरोप को वामपंथी नेता और कार्यकर्त्ता अन्य मुद्दों पर अपने स्टैंड से भी विश्वसनीयता प्रदान करते हैं. तिब्बत का सवाल इसका सबसे ताजा उदाहरण है. जब सारी दुनिया के लोग चीन मे तिब्बतियों के बर्बरतापूर्ण दमन पर शोक संतप्त हैं सीता राम येचुरी फरमाते हैं कि तिब्बत चीन का आंतरिक मामला है. भाई साहब आप एक लाइन मे यह तो बताते कि चीन वहाँ सही कर रहा है या गलत? तिब्बत क्या अलग राष्ट्रीयता का सवाल नही है? कूटनीतिक वजहों से आप खुल कर इस मुद्दे को नही उठा सकते तो मानवाधिकार का सवाल उठा कर, दमन की शिकायतों की जांच की मांग कर तिब्बतियों के साथ अपनी पक्षधरता तो दिखा सकते हैं? लेकिन नही. इस बिंदु पर आज भी चीन 'कम्यूनिस्ट' है.

अपने ऐसे अजीबोगरीब स्टैंड से वामपंथी दलों से जुडे नेता और बुद्धिजीवी न केवल अपने देशवासियों की नज़रों मे खुद को अविश्वसनीय बनाते हैं बल्कि उन्ही साम्राज्यवादी शक्तियों को मजबूती देते हैं जिनके खिलाफ लड़ने-मरने की वे कसमें खाते रहते हैं.
गौर कीजिए एक साम्राज्यवादी देश के खिलाफ दूसरे साम्राज्यवादी देश का पक्ष लेकर वे उस संभावित साम्राज्यवादी युद्ध को औचित्य प्रदान कर देते हैं जो विश्व कामगार वर्ग के लिए सिर्फ विपत्तियाँ ही ला सकता है. जिस साम्राज्यवादी युद्ध को कभी कोई कम्यूनिस्ट जसटीफाई करने की सोच भी नही सकता उसे ये वैधता प्रदान कर देते हैं.

अगर वामपंथी शब्दावली इस्तेमाल की जाये तो विश्व साम्राज्यवाद और विश्व कामगार के मुख्य अंतर्विरोध को गौण और साम्राज्यवादी शक्तियों के आपस के गौण अंतर्विरोध को मुख्य बनाने का काम ये वामपंथी दल खुद कर देते हैं. इस कठिन काम को अंजाम देने के लिए क्या ये साम्राज्यवादी शक्तियां इन वामपंथी नेताओं की शुक्रगुजार नही होंगी?

3 comments:

Arun Arora said...

मामला कुछ और है जी,आप ये बताये कि भिंडरावाले को आतंक्वादी बनाने मे इंदिरा जी का कितना सहयोग था,बस वही सहयोग वामपंथी कर रहे है ना..यही अमेरिकी निति भी है जी..अब आप संघ को कोसने से सारी दुनिया के पाप धुलने जैसा सोचते है तो हम क्या कहे जी...:)

आर. अनुराधा said...

आक्षेप किस पर है यह तो गौण बात है, महत्वपूर्ण है- क्या कहा और किया जा रहा है। हर समझदार को समझ में आ रहा है कि तिब्बतियों के साथ चीन का बर्ताव किस हद तक पहुंच गया है। और इस नाजुक समय में भी अगर कोई जिम्मेदार व्यक्ति अपनी ईमानदार राय देने से कतराता है तो उसके इरादे पर शक करना ही चाहिए।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

वामपंथियों ने समय-समय पर ऐतिहासिक भूलें की हैं और बाद में उन्हें स्वीकार भी किया है. वैश्विक साम्यवाद की बात आगे देखी जायेगी, फिलहाल तो भारत में ही समाजवाद जार-जार रो रहा है. इसका एक बड़ा कारण जनता की नज़रों में वामपंथियों के प्रति उपजी अविश्वसनीयता भी है. ये लोग बड़ी आसानी से दक्षिणपंथियों को अपनी कब्र खोदने का फावड़ा थमा देते हैं. अब ये किसे-किसे समझायेंगे कि चीन शत्रु देश नहीं है जबकि वह भारत की ज़मीन दबाये बैठा है और आक्रमण भी कर चुका है. ऐसे में तिब्बतियों के हक़ को चीन का अंदरूनी मामला बताना न सिर्फ़ बेईमानी है बल्कि एक किस्म का कायरपन भी है. हम भारतीय पहले हैं, बाकी कुछ और बाद में.

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