(पिछली दो पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह एड्स से साल में 2000 से कम लोग मरते हैं और मरने वालों की संख्या बढ़ भी नहीं रही है, लेकिन एड्स से लड़ने के नाम पर आने वाला पैसा लगातार बढ़ता जा रहा है। आपने ये भी पढ़ा कि एड्स की एक मौत को टालने पर सवा करोड़ रुपए खर्च होते हैं जबकि कैंसर जैसी बीमारियों से होने वाली मौत से निबटने के लिए औसत खर्च 3181 रुपए है। पैसा किन स्रोत से आ रहा है इसकी भी बात हो चुकी है। अब जानते हैं ये पैसा जा कहां रहा है। - दिलीप मंडल)
एड्स के नाम पर आ रहे अंधाधुंध पैसे का सबसे बड़ा हिस्सा (73%) खर्च किया जा रहा है लोगों को अवेयर बनाने के लिए। यानी पोस्टर, पर्चे, नुक्कड़ नाटक, बुकलेट, विज्ञापन आदि पर। प्रधानमंत्री की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को दिए प्रेजेंटेशन में नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन यानी नैको ने बताया है कि एड्स जागरूकता के विज्ञापन 2006 में 19,250 बार टेलीविजन चैनलों पर दिखाए गए।
इसी प्रेजेंटेशन में बताया गया है कि नेशनल रूरल हेल्थ मिशन के तहत 2007 से 2012 के बीच सरकार देश में 2031 करोड़ रुपए के कंडोम बांटेगी। ये रकम तो सिर्फ एनएचआरएम के तहत कंडोम खरीदने पर खर्च होनी है। नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम (एनएसीपी) का खर्च इससे अलग है। एनएसीपी के तहत देश में कंडोम की कुल खपत 3.5 अरब सालाना पर ले जाने का इरादा है। देश की कुल जनसंख्या में आधी आबादी और बच्चों और बूढ़ों के साथ उन लोगों की संख्या घटा दें जो अपना कंडोम खुद खरीदतें हैं, तो प्रति व्यक्ति कंडोम की खपत का रोचक आंकड़ा निकलेगा। आप भी कैलकुलेट करके देखिए।
एड्स : कारोबार भी है और रोजगार भी
बहरहाल कंडोम की गिनती से आगे बढ़ते हैं। एड्स के नाम पर हो रहे खर्च में चूंकि अस्पतालों की खास भूमिका नहीं है (क्योंकि मरीज कहां से आएंगे)। ये खर्च हो रहा है एनजीओ के माध्यम से। एड्स की जागृति फैलाने में एक लाख बीस हजार सेल्फ हेल्प ग्रुप को ट्रेनिंग दी जा रही है। आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि एड्स के लिए पैसा आता रहे और स्वास्थ्य पर खर्च की प्राथमिकताएं न बदलें इसमें कितने लोगों का स्वार्थ जोड़ दिया गया है।
संख्या का हिसाब देखें तो अभी पौने तीन लाख लोग फील्ड वर्कर के तौर पर एड्स की जागरूकता फैला रहे हैं। नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम के तहत 2012 तक इनकी संख्या बढ़ाकर साढ़े तीन लाख करने का इरादा है। एडस कंट्रोल कार्यक्रम से एक लाख तेरह हजार डॉक्टरों और लगभग एक लाख नर्सों को भी जोड़ा जा हा है। यानी हमारे देश में एड्स बेशक बड़ी बीमारी नहीं है लेकिन ये बहुत बड़ा रोजगार जरूर है। ये सरकारी आंकड़े तो बता रहे हैं कि एड्स से मिलने वाला रोजगार बीपीओ सेक्टर के रोजगार से भी ज्यादा है।
नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम के तहत 1151 बड़े एनजीओ ऐसे हैं जो हाईरिस्क ग्रुप के बीच 1231 कार्यक्रम चला रहे हैं जबकि 107 एनजीओ देश भर में 122 कम्युनिटी केयर सेंटर चला रहे हैं। संसद में इस बारे में सवाल उठे हैं कि क्या ये एनजीओ फंड का घपला कर रहे हैं। स्वास्थ्य मंत्री का जवाब आप खुद ही पढ़ लीजिए।
जाहिर है एड्स से लड़ने के नाम पर चल रहे कार्यक्रमों के जरिए बड़ी संख्या में ऐसे स्टेकहोल्डर्स पैदा हो गए हैं जो चाहेंगे कि हेल्थ सेक्टर पर हो रहे खर्च में एड्स को सबसे ऊपर का दर्जा मिलता रहे। एड्स की लॉबी कितनी प्रभावशाली है, और उनमें कौन-कौन शामिल है, इसपर फिर कभी।
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Monday, February 25, 2008
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1 comment:
बिल्कुल सही. कंडोम के कारोबारी सबसे ज्यादा लाबिंग एड्स का हौवा खड़ा करने में सबसे ज्यादा लाबिंग कर रहे हैं. आपको कभी डाक्टर मित्तल और पुरूषोत्तमन से बात करनी चाहिए.
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