...ये बहुत जालिम है पर जरूरी भी है।
-दिलीप मंडल
मेरे एक सवाल पर सोचिए। अगर ये ब्लॉग की जगह कोई और माध्यम होता तो क्या स्त्रियों की प्रगतिशीलता और पतनशीलता पर ऐसी बहस चल पाती। मनीषा पांडे, चंद्रभूषण, इरफान, नोटपैड, प्रमोद सिंह, विमल वर्मा इन सबकी बात ऐसे ही मुक्त छंद अंदाज में आप ब्लॉग के अलावा कहां और पढ़ने की कल्पना कर सकते हैं।
एक अखबार या न्यूज चैनल की कल्पना कीजिए जहां मीडिया में जातिवादी कंटेंट और न्यूजरूम के सोसल प्रोफाइल पर बात हो सकती है। मीडिया में मुसलमानों की लगभग गैरमौजूदगी पर और कहां बात हो सकती है? एक टीवी चैनल की कल्पना कीजिए जहां एनजीओ, सामाजिक सांस्कृतिक कार्य और विदेशी फंडिंग पर, जिसे जो सही लगता हो वो बोल रहा हो।
भड़ास जैसे एक मंच की कल्पना किसी और मीडियम में कर सकते हैं आप? जहां वो भी छप सकता है जिसके बारे में कहते हैं कि दो लाइन लिखने की तमीज नहीं है। एक राष्ट्रीय पत्रिका की कल्पना कीजिए, जहां दीप्ति दुबे अपनी बात उसी अंदाज में रख सकती हैं जिस अंदाज में उन्होंने मोहल्ला में अपनी बात कही थी।
स्वागत है ब्लॉग डेमोक्रेसी का। स्वागत है उस युग के अंत का, जहां हाथ इसलिए नहीं उठाए जाते थे कि कांख के बाल दिख जाएंगे। ब्लॉग न होता तो ये सब कहां होता? आपमें से भी कई लोग प्रिंट में लिखते रहे है। मेरे लिए भी छपने का संकट कभी नहीं रहा। लेकिन क्या मैं किसी और मंच पर वो बहस चलाने की सोच सकता था, जो ब्लॉग पर मुमकिन हो रहा है। दोस्तो, यही है इस माध्यम की ताकत। इससे दुनिया बदले या न बदले, संवाद का तरीका जरूर बदल रहा है।
इस माध्यम को बरत रहे लोगों से यही गुजारिश है कि भाषा या कंटेंट के नाम पर किसी ब्लॉग की ऐसी रैगिंग न करें कि बंदा ब्लॉगिंग भूल जाए। उसके निजी जीवन या रोजी रोटी से जुड़े रहस्य आपके पास हैं तो ब्लॉग को कृपया बदला लेने का मंच न बनाएं। ये मंच आपको एंपावर करता है, लेकिन एपावरमेंट के साथ जो जवाबदेही होनी चाहिए, उसका कोई संस्थागत रूप यहां नहीं है। ये जवाबदेही आप अपने ऊपर खुद ही तय कर सकते हैं। लेकिन आप अगर धतकरम पर उतारू हैं तो आपको कौन रोक सकता है?
वैसे आप ऐसा नीच काम करेंगे तो भी ब्लॉगिंग का सफर रुकने वाला नहीं है। ब्लॉग हत्यारों का अपराध समय लिखेगा। ये माध्यम अपने पीछे कई निशान छोड़ता जाता है। यहां हत्यारों की शिनाख्त मुश्किल नहीं है। ब्लॉगिंग की शुरुआत में मेरे खिलाफ एक षड्यंत्र के सबूत मेरे पास हैं। जिन्हें लगता है कि वो बेनाम होकर कुछ भी लिख देंगे और उनकी पहचान नहीं हो सकती, वो धोखे में हैं। लेकिन मेरे मामले में उन्हें सार्वजनिक करने की जरूरत नहीं है। एक और मामले में है, जिस पर फिर कभी बात होगी।
मैंने ये साल शुरू होने से पहले अपनी विश लिस्ट देते हुए कहा था कि 2008 के अंत में हिंदी के 10,000 ब्लॉग होंगे। इस आंकड़े में करेक्शन की जरूरत अभी से महसूस होने लगी है। स्वागत है नए खिलाड़ियों का।
Custom Search
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Custom Search
8 comments:
इस माध्यम के लोकतांत्रिक होने से ज़्यादा अहम है यहाँ लिखने और पढ़नेवालों का लोकतांत्रिक होना। माध्यम समाचार पत्र हो या टीवी न्यूज़ चैनल। हर जगह, हम जैसे और हम ही है। फिर ऐसा क्यों, कि जब ब्लॉग में लिखा तो इतनी खुलकर बात की। और जब चैनल की सीढ़ियाँ चढ़ी तो कुछ और कहने लगे। मुझे लगता है हम बहुत ख़तरनाक लोग है। जो एक होते हुए भी दो तरह की बातें एक साथ कर लेते हैं। शायद ऐसा इसलिए कि अभी ब्लॉग को टीआरपी और मुनाफ़े का कीड़ा नहीं काटा है?
-दीप्ति
मार्के की बात कही है आपने ...ब्लॉग के बारे में इतना कि आप ही डंडा,आप तराज़ू,आप ही बैठा तोलता....वाकई ब्लॉग ने सोच को एक नया आयाम दिया है...कभी अखबारों,पत्र पत्रिकाओं,साहित्य में हम अपने समय को पहचानने की कोशिश करते थे..पर ब्लॉग ने तो गूंगो को भी ज़ुबान दे दी है... जो अच्छा लगे उसे अपनाओ,जो बुरा लगे उसे जाने दो ।
ठीक कह रहे हैं । शायद सबसे बड़ी बात यह है कि वे लोग भी जिनसे हर समय मुस्कराने और गुडी गुड बने रहने की अपेक्षा की जाती रही है , वे कुछ समय के लिये यह मुस्कान और गुडी गुड का लेबल उतार फेंक सकते हैं ।
मेरे खयाल से तो आप नई पीढ़ी वाले या घर से बाहर निकलने वाले तो वैसे भी अपनी बात कह लेते , परन्तु मेरी उम्र के लोग, विशेषकर गृहणियाँ क्या आप सबके विचार जानने व अपने प्रस्तुत करने का स्वप्न भी देख सकती थीं ? या फिर संसार में क्या हो रहा है , लोग क्या सोचते हैं, क्या विचार करते हैं जान सकती थीं ?
नेट स्वयं में संसार के लिए मेरी खिड़की थी परन्तु ब्लॉगिंग एक मंच भी हो गई ।
घुघूती बासूती
एपावरमेंट के साथ जो जवाबदेही होनी चाहिए, उसका कोई संस्थागत रूप यहां नहीं है। ये जवाबदेही आप अपने ऊपर खुद ही तय कर सकते हैं।
****
बहुत सही बात । अच्छी बैलेंसड पोस्ट ।
बात दरअसल ये है की जो डेमोक्रेसी का ढोंग करते हैं, वे ही इसे बर्दाश्त नही कर पाते । दूसरी ओर दलित-वंचित तबके के लिए डेमोक्रेसी चाहत और जरूरत की तरह है और जब वो इसमें जरा भी झूठी-सच्ची भागीदारी पाते दिखायी देते हैं तो तूफ़ान सा मच जाता है और ताक़तवर तबका बेशर्म होकर हिंसा पर उतर आता है (कथित आरक्षण विरोधी आन्दोलन के नाम पर अश्लीलता इसका ताज़ा उदाहरण है)। फिर कोर्ट, अखबार आदि सब एकजुट हैं ही। कोई कहे की इनमें दलितों की भागीदारी नही है, तो ये एकतरफा होंगे ही, तो इसमें क्या झूठ? रही बात दिलीप मंडल क्यों गिनती कर रहे हैं अखबारों में दलितों की, तो व्यंग्य में इसे यों समझो हिंसक लोगो कि ये भी आपके ही काम आएगा।
दरअसल इस मुश्किल लड़ाई में दुनिया भर के न्याय के पक्षधर इसीलिए वैकल्पिक मीडिया की बात कर रहे हैं। ज़ाहिर है, इन ताक़तवर लोगो की बेशरम एकजुटता के बीच कोई भी वैकल्पिक मीडिया सीमित प्रभाव वाला ही होगा, ब्लॉग भी ऐसे एक वैकल्पिक मीडिया के रूप में हो सकता है। पर बात ये है की ऐसी हर कोशिश को विरोधी तब्बका दूषित बनने की कोशिश करेगा ही और ऐसे धूर्त हमले करेगा जैसे दिलीप मंडल पर हो रहे हैं। लेकिन उनसे ज्यादा खतरा अपने ही बीच के रेंज सियारों का है, जो डेमोक्रेसी के नाम पर इसे अश्लील और बेहूदी सनक का मंच बनने की कोशिश करते हैं। ज्ञानोदय विवाद में हम देख ही चुके हैं और अपने बीच के कई बुद्धिजीवियों के ब्लॉग से भी ये जाहिर है
ब्लॉगिंग कई लोगों के लिए कई स्तरों पर अपनी निजी बात कहने का सार्वजनिक मंच है। मजे की बात ये कि इसमें आप गुमनाम रहकर भी अपने विचार जाहिर कर सकते हैं। ऐसे खुले माहौल में, जाहिर है- 'मैं तुम्हारा जॉकी नंबर भी जानता हूं' का दंभ भरने का लालच कम ही लोग दबा पाते हैं। इसलिए किसी खास व्यक्ति को लक्ष्य करके लिखे गए चिट्ठे भी सबके सामने होते हैं। ऐसे माध्यम में थोड़ी-बहुत कीच-उछाली तो होगी ही। इसकी चिंता करने की जरूरत उन्हीं को होनी चाहिए जो भीतर से मैले हैं। एक और बात। ब्लॉग आपस में एक दूसरे की पीठ खुजलाई का माध्यम मात्र नहीं बल्कि इससे आगे, जनमत को बनाने, उभारने और कमजोर आवाजों को शब्द देने का साधन बने तो बेहतर।
-अनुराधा
तुम्हारे जैसे व्यक्ति से इतना मोडेस्ट होने की उम्मीद मैं नहीं करता. कई बार कह चुके हो कि भाषा के जानकार नहीं हो. और जब तुम यह इस्तेमाल करते हो तो मज़ा आ जाता है - 'जहां हाथ इसलिए नहीं उठाए जाते थे कि कांख के बाल दिख जाएंगे।' कमाल है! हाँ 'धतकरम' प्रभाष जोशी ने प्रचलित किया है.
अनुराधा जी अगर वही हैं जिन्होंने इस बार के 'हंस' में 'सती प्रथा, भक्तिकाव्य और हिन्दी मानसिकता' प्रबंध लिखा है,. तो उन्हें बधाई!
वैसे उनके सारी बात कहने के तरीके से मुझे आपत्ति है. वह कबीर को जितनी छूट देती हैं उतनी अन्य मूर्धन्यों को नहीं. कबीर को समझने की उनकी दृष्टि भी पूर्वग्रह से ग्रसित लगती है. कबीर में जो नहीं है वह भी अपनी आत्मा की शांति के लिए वह देखती ही नहीं, बल्कि आश्वति पाती हैं. उनकी समझ एक जगह वही नहीं है जो दूसरों के बारे में है. यहीं यह अच्छा लेख असफल हो जाता है.
पूरा लेख अपना तर्क मनवाने की जिद से भरा हुआ है. वैसे उनकी प्रस्थापनाएं अच्छी हैं. मेहनत भी अच्छी हुई है. बेहतर हो उन्हें दुराग्रह से मुक्त होना आए, वरना कई बार अच्छे प्रयास सिर्फ़ इसलिए बेकार हो जाते हैं कि उनका तरीका दुरुस्त नहीं रहा.
क्या उन्हें समझ में नहीं आता कि राजा राममोहन राय के सामने भी कुछ सीमायें रही होंगी. 'सती प्रथा' को गोली मारिये, आज एक बुद्धिमान स्त्री को अपने पति से तलाक ले लेने या दूसरी शादी कर लेने के अलावा कितने विकल्प खुले हुए हैं इस समाज में? उस समय की कल्पना किए बगैर अपने क्रांतिकारी बाप को धोबी पछाड़ खिला देना रूह को तस्कीन तो दे सकता है लेकिन इससे कृतघ्नता ही झलकती है. यह भी विचार करना चाहिए कि आज हम जो इतनी आसानी से बोल और लिख पा रहे हैं वह शहीद- ए- आज़म भगत सिंह को जान की कीमत चुका कर भी कितना मुश्किल था.
Post a Comment