प्रणव प्रियदर्शी
महाराष्ट्र मे राज ठाकरे ने पिछले कुछ अरसे से हंगामा मचा रखा है. ऐसा कि हजारों की संख्या मे उत्तर भारतीय अपने रोजगार की चिंता छोड़ अपने-अपने मुलुक को लौट रहे हैं. उन्हें मालूम है कि गाँव जाकर वे फिर उन्ही समस्याओं से दो-चार होंगे जिनकी वजह से उन्हें अपना घर-बार छोड़ परदेस आना पड़ा था. इसके बावजूद जान बचाने की चिंता उन्हें बरसों की मेहनत पर पानी फेरने से भी नही हिचकने दे रही.
उन पर हमले कर रहे हैं वे लोग जो उन जैसे ही बेचारे हैं. जो महाराष्ट्र मे जन्मे यही पले-बढे हैं. जिनके माँ-बाप भी महाराष्ट्रियन हैं. इसके बावजूद उन्हें ढंग की नौकरी नही मिल पा रही. वे बहुत ज्यादा नही चाहते. 'साई इतना दीजिये जामे कुटुंब समय, मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू न भूखा जाये.' बस इतनी ही इनकी जरूरत है. उतना ही पाने की इच्छा भी है. किसी का मुहताज न हों. इज्जत से अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण कर सके. मगर यह भी नही मिलता. इन लोगों को.
उन लोगों को भी यह अपने राज्य मे नही मिला, जिन पर ये 'बेचारे' लोग हमले कर रहे हैं. तभी तो उन्हें यहाँ आना पडा दूसरों की गालियाँ सुनने.
मगर, जो राज ठाकरे बाहर से आये बेचारों से स्थानीय बेचारों को लड़ा रहे हैं, वे बेचारे नही हैं. उनके पास अथाह सम्पत्ति है. मगर उन्हें और चाहिए. पैसा भी, ताकत भी. उनके चाचा ने भी ठीक यही काम किया था. पिछले चार दशक से करते आ रहे हैं. इस क्रम मे उन्होने अपने लिए, अपने परिवार के लिए, अपने चेलो के लिए बेशुमार दौलत कमाई. वे और उनसे जुडे लोग मालामाल हो गए. आम लोग नही, उनसे जुडे खास लोग. लेकिन आज तक बाल ठाकरे आम लोगों की नज़र मे बेनकाब नही हुए. उनकी पोल नही खुली. महाराष्ट्र के कथित आम लोग आज भी उनके आदेश के आगे नतमस्तक हैं. इन्ही आम लोगों के बूते सीनियर ठाकरे राजाओं जैसा रूतबा रखते हैं. वैसा ही कुछ राज ठाकरे भी हासिल करना चाहते हैं और बहुत संभव है कि वे कर भी लेंगे. बाल ठाकरे की ही तरह उन्हें भी अन्दर ही अन्दर सरकार का समर्थन प्राप्त है.
गौर करने की बात है कि राज ठाकरे इतिहास को ज्यों का त्यों नही दोहरा रहे हैं. वे बाल ठाकरे के (कु)कृत्यों को आगे बढा रहे हैं. बाल ठाकरे ने भी मुम्बई के दक्षिण भारतीयों के मन मे खौफ पैदा किया था. उनमे से बहुतों को भागने पर मजबूर किया था. इन कार्यों के जरिये उन्होने स्थानीय आबादी के मन मे यह भाव जगाया कि वे उनके हितों की रक्षा कर सकते हैं. उनका असली मकसद उद्योगों को ट्रेड यूनियनों से छुटकारा दिलाना था. कामगारों की एकता के चलते उद्योगपति कर्मचारियों के खिलाफ मनमाने ढंग से फैसले नही कर पाते थे. बाल ठाकरे की अगुवाई मे और कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के सहयोग से शिव सेना ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया. कामगार समुदाय क्षेत्र के आधार पर बंट गया. उसकी ताकत बिखर गयी.
लेकिन राज ठाकरे अब एक कदम आगे बढ़ गए हैं. 'समय की जरूरत' देखते हुए. सीनियर ठाकरे के दौर मे कम ही सही, नौकरियां थीं. यूनियनों की ताकत बची हुयी थी. लेकिन अब मौजूदा साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के दौर मे नौकरिया नाम मात्र को ही रह गयी हैं. इसलिए राज ठाकरे उस तरफ ध्यान नही दे रहे. टैक्सी यूनियनों मे जरूर वे अपनी पैठ बना रहे हैं हिंसात्मक उपायों से, लेकिन अन्य क्षेत्रों मे वे आजीविका के साधनों को एक से छीन कर दूसरे को देने का काम हाथ मे ले चुके हैं. शुरुआत दूध वितरण से हुयी है. 'भैयों' को भगा कर उनकी जगह दूध बेचने का काम मराठी युवकों को देने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. इसके लिए वे एक संगठन श्री कृष्ण दूध वितरण संस्था बना चुके हैं जिसकी औपचारिक घोषणा नौ मार्च को होनी है. यही काम अन्य पेशों - जैसे पानी पूरी, भेल पूरी, सेव पूरी बेचने - मे भी होना है.
गौर कीजिए. मराठी युवकों को रोजगार दिलाने की मांग राज ठाकरे सरकार से नही कर रहे. वे इन युवकों से कह रहे हैं कि जाओ पडोसी का काम उससे छीन लो.
आप इसे असंवैधानिक वगैरह कहते रहिये. सरकार अन्दर से उनके साथ है. उनका कुछ बिगड़ना नही है. अब जिनकी जीविका छीनी जा रही है, आज नही तो कल वे उठेंगे. उन्हें उठना ही होगा. संगठित होंगे और इन लोगो को इन्ही की भाषा मे जवाब देंगे. जैसे राज ठाकरे हैं वैसे ही कोई अमर सिंह या कोई अबू आजमी इनका भी 'रक्षक' बनने का दावा करेगा.
राज और अबू तो राजनीति मे अपनी औकात बढा कर अपना मकसद पूरा कर लेंगे. जो बडा मकसद इन्हें बढावा देने वालों का है वह भी पूरा होगा. बेचारे लोग, हम अपनी शब्दावली मे कहे तो रिजेक्ट समुदाय कभी एक होकर इनसे नौकरी की मांग नही कर पायेगा. यह समुदाय आपस मे एक दूसरे से लड़ता और मरता रहेगा. यही उस सेलेक्ट समूह की जरूरत है जिसका प्रतिधिनिधित्व राज ठाकरे और अबू आजमी कर रहे हैं. खास कर इसलिए कि अब उस सेलेक्ट समूह के पास हमे देने को कुछ नही रह गया है. न नौकरी और न ही कोई अन्य बड़ी रियायत.
ऐसा नही कि उसके संसाधन कम हो गए हैं. सेलेक्ट समूह के पास आज भी अकूत सम्पत्ति है. लेकिन उसका इस्तेमाल और ज्यादा कमाने मे होना है. इसीलिए उन पैसो को विदेशो मे निवेश किया जायेगा. उनसे विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण होगा. इस तरह के तमाम दूसरे काम होंगे. मगर अपना श्रम बेच कर आजीविका चलाने वाले रिजेक्ट समूह के लिए उस सेलेक्ट समूह के पास कुछ नही है.
(अगली किस्त : राज ठाकरे ने तो वक्त को पहचान लिया, हम कब पहचानेंगे?)
Custom Search
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Custom Search
2 comments:
यह राजनीति जो न कराये कम है। क्या करें राज ठाकरे को भी तो आपनी राज-नीति चमकानी है। वैसे हमें तो उन पर तरस ही आता है। क्या करें?
बहुत बड़िया विश्लेशन, इसका तोड़ भी सुझाते तो और अच्छा होता, रिजेक्ट माल को भी मालूम है कि वो रिजेक्ट माल है पर कोई दूसरा पर्याय नहीं दीख रहा उसे।
Post a Comment